________________
32 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
इस अवसर पर महाराज अकम्पन ने साहसपूर्वक कहा कि मेरी पुत्री इस समय दान देने योग्य है वह आपके प्रसन्न चरणों की सेविका बने यह मेरा दृढ़ संकल्प है।
__जयकुमार ने कहा हे श्वसुर ! मेरी बुद्धि सुलोचना की अभिलाषिणी है, अतः मुझे प्राप्त हो । ___सुलोचना की माता सुप्रभा ने कहा वह मुझे प्राणों से प्रिय है, अस्तु आपके लिये वह प्रसाद रूप में है।
महाराज अकम्पन के द्वारा कन्यादान के सम्बन्ध में दोनों कुलों के पवित्रता, अभ्युदय आदि के उद्घोष का वर पक्षीय व्यक्तियों द्वारा समर्थन हुआ ।
ततः गृहस्थों के लिये शास्त्रोक्त छः कर्म प्रतिदिन के लिये बताए गये हैं । कन्या पक्ष के द्वारा भी इन दोनों के सम्बन्ध का समर्थन हुआ ।
तदनन्तर दोनों के समुचित संस्कारों का वर्णन किया गया है । वीर जयकुमार के हाथ पर सुन्दरी सुलोचना का हाथ पड़ने से भविष्य में पुरुषायित चेष्टा का यह सूचक है, ऐसा सोचकर सखियों का समूह हँस पड़ा ।
पुनः कर पास और कुश सूत्रों से उन दोनों का कङ्कण बन्धन हुआ।
तदनन्तर हवन कालिक लाजा का वर्णन किया गया है । जैन दर्शन के अनुसार सात परम स्थान पद माने गये हैं, इसका वर्णन महाकाव्य में विस्तृत ढंग से हुआ है ।
पुनः महाराज अकम्पन द्वारा विवाहोत्सव काल में दान सप्तपदी के पण तथा दम्पति द्वारा कामना की अभिव्यक्ति एवं पंच परिमेष्टि अर्हन्त आदि की पुष्पांजलि का अर्पण ततः शिष्टाचार आदि दिखाया गया है।
तदनन्तर सब लोग मिलकर सुस्पष्ट रूप से सद्भावना से भगवान् जिनेन्द्र देव की स्तुति करने लगे कि भगवान् की स्तुति हम लोगों की मनोवाच्छित सिद्धि प्रदान करे ।
इस प्रकार सुलोचना और जयकुमार के विवाह वर्णन के माध्यम से द्वादश सर्ग की समाप्ति की गयी है।
त्रयोदशः सर्ग : तेरहवें सर्ग में काशी नरेश अकम्पन के यहाँ से विदा होकर जयकुमार के प्रस्थान का वर्णन किया गया है । जयकुमार ने हस्तिनापुर गमन के लिये महाराज अकम्पन से प्रार्थना की । अकम्पन ने मौन धारण किये हुए जयकुमार के चरणों को अश्रु बिन्दुओं से अभिषिक्त कर उनके मस्तक पर अक्षत छोड़ा । प्रस्थान कालिक भेरी आदि बजने लगे ।
अस्तबल में हाथी को आस्तरण झूले आदि लगा दिया, सारथी ने रथ को सजाकर घोड़ों के मुख में लगाम लगा दिया । भेरी आदि वाद्य को सुनकर पदाति लोग भी चलने