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द्वितीय अध्याय /31 गया है । इस प्रकार जयकुमार के सम्बन्ध में अनेक लोगों ने अनेक प्रकार की बातें कीं। -
, ततः अकम्पन भवन में जयकुमार के पहुंचने का वर्णन तथा मंगल-मण्डप का मनोहारी वर्णन किया गया है।
तदनन्तर जयकुमार और सुलोचना का परस्परावलोकन कराकर सर्ग की समाप्ति कर दी गयी है।
एकादशः सर्ग : एकादश सर्ग में जयकुमार के मुख से सुलोचना का सौन्दर्य वर्णन दिखाया गया है। यह सम्पूर्ण सर्ग इसी में समाप्त किया गया है । जैसे सर्व प्रथम सुलोचना के सौन्दर्यामृत प्रवाह की नदी में जयकुमार के नयनमीन युगल खेलने लगे । जयकुमार उत्कण्ठापूर्वक सुलोचना को देखने लगा । अवलोकन क्रम में प्रथम मुख ततः वक्षस्थल की ओर दृष्टि गयी । सुलोचना की त्रिवली रूपी सोपान पंक्ति का आश्रय लेकर शनैः शनैः नाभिरूपी सरोवर में जयकुमार की तृष्णा से भरी हुई दृष्टि पहुँची । तदनन्तर पुनः सुन्दर चरण कमलों में स्थिर हुई ।
बुद्धिमती, शीलवती सुलोचना की जंघाएँ गोल, सदाचार सम्पन्न श्रेष्ठ वर्ण एवं स्वर्ण प्रतिम बतायी गयी हैं।
इसका नितम्ब गुरु है, ऊपर की ओर स्तन मण्डल भी गुरु है । इस कारण मध्यभाग (कटि प्रदेश) प्रतीत नहीं होता । क्षमाशीला सुलोचना ने गुरु स्तन भार से कटि प्रदेश कहीं नष्ट न हो जाय, इस विचार से ही मानो कटि को करधनी से लपेटकर निर्विघ्न कर लिया
नायिकाओं के निर्माण में सर्वप्रथम सष्टि सरस्वती की है । ततः दूसरी सृष्टि लक्ष्मी की, जो सुन्दरतर हुई । तत्पश्चात् तीसरी सृष्टि सुलोचना की हुई । यह सुलोचना सुन्दरतम स्वरूपा हुई । इन तीनों को बताने के लिये मानो ब्रह्मा ने सुलोचना के शरीर में त्रिवली के रूप में तीन रेखाओं का निर्माण किया । - इसी प्रकार ओष्ठ, हाथ, मुख, नासिका, नेत्र, केश, पलक (निमेष) आदि अंगों का वर्णन किया गया है । पुनः पुनः अङ्गों पर दृष्टिपात करके वर्णन का रूप देकर इस एकादश सर्ग की समाप्ति कर दी गयी है ।
द्वादशः सर्ग: इस महाकाव्य का द्वादश सर्ग सरस्वती एवं ऋषियों की वन्दना से आरम्भ होता है। जयकुमार पाप विनाशक धर्मचक्र से कल्याण की याचना करते हैं । पुनः अर्चनोपरान्त सुलोचना ने चिरकाल के बाद प्राप्त हुए जयकुमार को वरमाला पहना देती है ।
कमलमाला परिधापनान्तर सुलोचना लज्जा अनुभाव से नम्र हो गयी है ।