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द्वितीय अध्याय /25 द्वितीयः सर्गः 'इस सर्ग में सम्यक् हित करने वाले जिन भगवान् को नियम पूर्वक वद्धांजलि के साथ प्रणाम कर मुनिराज ने मुक्त कण्ठ से गृहस्थ धर्म का उपदेश किया है ।
इस प्रकार ऋषिराज ने संहिता शास्त्र, सुप्तशास्त्र प्रभृतिशास्त्रों का जयकुमार के लिये अनेकों प्रकार का उपदेश किया । ततः निषिद्ध वस्तुओं का वर्णन किया यथा - यूत क्रीडा, मांस, मदिरा, पराङ्गना, मृगया, चोरी, वैश्यागामिता, नास्तिकता इन सभी का मनुष्य को त्यागे करना चाहिए अन्यथा सारी पृथ्वी आपदाओं से भर जायेगी। उपदेश श्रवणकर महाभाग जयकुमार अपने भवन को लौट रहे थे तो साथ में उपदेश को सुनने वाली सर्पिणी को एक दिन अन्य सर्प से अनुरक्त हुई देखकर हाथ में स्थित कमल से उसे भयभीत किया क्योंकि विद्वान् अनुचित स्थान में रति को कैसे सहन कर सकता है - "सहेत् विद्वान् अपदेकुतो रतम्" "गतानुगतिकोलोकः" के आधार से अन्य लोगों ने भी उस सर्पिणी को पीटा । मृत्यु को प्राप्त हुई वह सर्पिणी अपने पति के साथ देवाङ्गना बनकर पहुंची । वह अन्यमनस्क होकर पुनः जयकुमार के प्रति ईर्ष्या रखती हुई अपने पति देव को सारा वृत्तान्त कह सुनायी । अपनी कामिनी के कथन पर अन्त:करण से विश्वास किया हुआ क्रोधाभिभूत वह यक्ष जयकुमार को मारने हेतु आया । उस समय जयकुमार अपनी प्रियतमाओं के समक्ष पूर्व घटना का यथार्थ वर्णन कर रहे थे, जिसे सुनकर वह देवरूपधारी सर्प अज्ञानता से दूर हो अपने मन में अपनी कुलटा स्त्री की कुटिलता पर विचार करने लगा । ___ततः रतिप्रभ नामक देवरूपधारी सर्प स्त्रियों की निन्दा करते हुए गजपत्त नरेश जयकुमार के समीप पहुँचा और अपनी स्त्री की निन्दा कर एवं राजा की प्रशंसा कर उनका सेवक बन गया । ततः जयकुमार के आदेश से अपने घर को चल दिया ।
तृतीयः सर्गः इस सर्ग में महाकवि ने प्रथम जयकुमार की सभा का वर्णन किया है । पुनः सभा में सिंहासनारूढ़ महाराज जयकुमार के पास काशी नरेश अकम्पन का दूत आकर महारानी सुप्रभा के कुक्षि से उत्पन्न एवं चन्द्रिका की भाँति पृथ्वी पर प्रसन्नता की धारा बहाने वाली, इक्षु यष्टि की भाँति प्रतिदिन उत्तरोत्तर सरसता से भरी हुई, जगट् आह्लाद कारिणी, नित्य नवीन शोभा को धारण करने वाली, कामदेव को प्रगट करने वाली चन्द्रलेखा की भाँति वह कौमारावस्था को पार कर चुकने वाली किन्तु स्वाभाविक स्नेह के कारण कामदेव से अवलेशित, अनुपम सौन्दर्य युक्त वाणी में स्याद्वाद की विचित्रता से पूर्ण रमणी रत्न मूर्धन्या काशी नरेश महाराज अकम्पन की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर का समाचार देता है ।
स्वयंवर समाचार को सुनकर सुलोचना परिग्रहार्थ काशी प्रस्थान के लिये उत्कण्ठित महाराज जय कुमार ने मस्तक पर मणिमय मुकुट को धारण कर, श्री तीर्थङ्कर के चरणों पर