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जयोदय महाकाव्य की कथा वस्तु
प्रथमः सर्गः जयोदय महाकाव्य के प्रथम सर्ग में सर्वप्रथम जिन भगवान् की वंदना की गयी है, श्री ऋषभदेव तीर्थंकर के समय भगवान् जिन सेन के इच्छानुसार अपूर्व गुणों से सम्पन्न महाराज जयकुमार हस्तिनापुर के शासक हुए, जिनकी कथा एक बार श्रवण से भी अमृत पीने की इच्छा व्यर्थ प्रतीत होती है। अमृत केवल कामस्वरूप एक ही पुरुषार्थ प्रदान करता है । परन्तु महाराज जयकुमार की कथा धर्मार्थ, काम मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाली है। इनके लीला कथा के स्मरण मात्र से इह लोक-परलोक दोनों पवित्र हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में ग्रन्थकार का कथन है कि मेरी वाणी जो कथा का सेवन करेगी वह क्यों न पवित्र होगी ? यह वाक्यार्थ नैषधकार हर्ष की पंक्ति का साक्षात् अनुसरण करता है । यथा -
"पवित्रमत्रा तनुते जगधुगे स्मृता रसक्षालनयेव यत्कथा । कथं न सा मन्दिरमाविलामपि स्वसेविनीमेव पवित्रयिष्यति ॥"
महाराज जय कुमार की कथा का विशेष महत्व प्रदर्शन किया गया है । अकम्पन की पुत्री सुलोचना जयकुमार के यश आदि को सुनती है तथा राजा जयकुमार पवित्र तेजस्विनी वनिता मण्डल में श्रेष्ठ गुण शालिनी सुलोचना के गुणों की अपने दरबारियों से सुनता है । इस प्रकार दोनों एक दूसरे के प्रति प्रेम रखने लगते हैं । __ततः किसी समय जयकुमार को मुनि राज के दर्शन हुए । नवनीतवत् कोमल चित्तवाले जयकुमार ने मुनिराज की तीन बार परिक्रमा कर हाथों को जोड़कर नम्रतापूर्वक उनके सामने बैठ गये और ऋषिराज से बोले कि हे भगवन् ! दुःख पूर्ण स्थिति में निवास करने वाले हम गृहस्थों के लिये क्या करणीय है ? क्या अकरणीय है ? इसका उपदेश करें । ततः आगम शास्त्रानुसार उचित एवं मनोरम आचार का मुनिराज ने उपदेश किया, जिसका विवरण द्वितीय सर्ग मे दिया गया है।
सर्ग की समाप्ति में नैषधकार की भाँति वाणीभूषण ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री ने भी अपना परिचय दिया है -
"श्रीमान श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं, वाणीभूषणमस्त्रियं घृतवरी देवी च यं धीचयं । तेनास्मिन्नुदिते जयोदयनयप्रोद्धारसाराश्रितो, नानानव्य-निवेदनातिशयवान् सगोऽयमादिर्गतः ॥"