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________________ प्रथम अध्याय /21 इसमें सांख्य सिद्धान्त पर उदासीनता प्रकट करते हुए कहा गया है कि आश्चर्य है। सत्व, रजस, तमस, स्वरूप प्रकृति द्वारा भले ही किसी प्रकार यह सृष्टि हो, तथा जड, जल या अनल की भाँति उसका विस्तार हो, प्रेरणाएं उत्पन्न हों, परन्तु पात्र के आधीन जलादि होने से परतन्त्रता सिद्ध होती है जो जड जगत् की स्थिति है, जिसे तुम पार कर चुके हो। पुनरपि द्रष्टव्य है "साधे मुधाहं ममकारवेशं संक्लेशदेशं जितवानशेषम् । प्रक्षीणदोषावरणेऽथ चिद्वान्सम स्तमारात्स्फुटमेव विद्वान् ॥'43 हे परोपकारिन् ! व्यर्थ ही मैंने क्लेश के स्थान मूलभूत ममता पर विजय प्राप्त किया। क्योंकि दोष आवरण के नष्ट होने पर चित्त स्वरूप समस्त स्वतः प्राप्त हो जाता है । यह विद्वान् के लिये सर्वथा सुगम है। - श्लोक संख्या एक सौ एक में कहा गया है कि एक ही के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु उत्पन्न है । यह जो लोग अनुमान करते है, वह कहाँ तक उचित है ? क्योंकि उपरिमित का निर्माता कौन हो सकता है ? इस भू-मण्डल में असमर्थतावश व्यक्ति उपनेत्र (चश्मा) के द्वारा किसी से सुने हुए पदार्थ को देखता है ऐसे ही जिस वस्तु के ज्ञान में शक्ति नहीं है वहाँ वेद के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को प्राप्त कर युक्ति के द्वारा लोग वहाँ उसे देखते हैं । इस भाव को कवि ने अधोलिखित पद्य से व्यक्त किया है - "यन्मीयते बस्त्वखिलप्रमाता भवेदमेयस्य तु को विधाता । श्रुत्याखिलार्थाधिगमोऽप्यशक्त्यावलोक्यते भुव्युपनेत्रयक्त्या॥144 ऐसे स्थलों का कोई बोध नहीं कराता, न तो कोई मार्ग ही प्रतीत कोई ही गुरु इस प्रकार की वाणी की सम्पत्ति का बोध नहीं करा पाता है । युक्ति और आगम के द्वारा विरोध शून्य दोष रहित एक आप ही प्रतीत होते हैं । इस प्रकार देव की बारम्बार प्रशंसा कर एवं इन्द्रादि के जीवन को भी तुच्छ बतलाकर उपास्य देव की वाणी का आदर कर जयकुमार के माध्यम से सर्ग-समाप्ति की गयी है । इस प्रकार कवि भूरामल जी शास्त्री को अगाध पाण्डित्य प्राप्त था। उनका व्याकरण, दर्शन, काव्य, संगीत आदि पर समान अधिकार था । भारतीय संस्कृति के प्रति उनमें अपार श्रद्धा थी । गृहस्थ जीवन को उन्होंने उत्तम स्थान प्रदान किया है । यज्ञ-कर्म-अनुष्ठान-ज्ञानवैराग्य के प्रति उनमें अमिट भाव था । यही कारण है कि उनके विशाल काव्य में भारतीयता का कोई पक्ष अछुता नहीं रहा और दर्शन विशेषकर जैन दर्शन के लिये वे समर्पित थे । इसलिये सम्पूर्ण काव्य ही तदर्थ और तदुपदेशपरक है । उनके व्यक्तित्व का आकलन सीमित शब्दों में सम्भव नहीं है। * * *
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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