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20/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन क्योंकि स्व लक्षण जब सम्भव है तो अन्य स्वीकार करना उचित नहीं । इसलिये चेतन और जड अनादि सिद्ध हैं ।
इस प्रकार कह कर अभाववादी बौद्ध के दर्शन का खण्डन करने के लिये महाकवि ने उपासक जयकुमार के मुख से आगे के श्लोक में व्यक्त किया है
"यद्गोमयोदाविह वृश्चिकादिश्चिच्छक्तिरायाति विभो अनादिः । .. जनोऽप्युपादानविहीनवादी वह्निं च पश्यन्नरणेः प्रमादी ॥139
इस श्लोक में कहा है कि गोबर और जल (भैंस के गोबर और दही एवं घोडी की लीद तथा गधे के मूत्र) से बिच्छु आदि की उत्पत्ति देखी जाती है । इसलिये अभाववादी का कथन है कि अभाव से ही अनादि प्रवाह्वान जगत् की सृष्टि हुई है । उसके खण्डन में उपासक अपने देव को सम्बोधित करके कह रहा है कि, हे विभो । समर्थशालिन्, उपादान कारणहीनं बोलने वाला मनुष्य (अभाववादी बौद्ध) क्या वह काष्ठ के भीतर अग्नि को देखते हुए भी प्रमाद नहीं कर रहा है । काष्ठ अरणी के भीतर अग्नि का निवास रहता ही है जो दहन करने में समर्थ है । परन्तु वह परस्पर रगड़-घर्षण से ही यज्ञादि में अभिव्यक्त किया जाता है।
आगे का श्लोक भी दर्शन से सम्बन्धित है । यथा-"शरीरमात्रानुभवात्सुनामिन्नव्यापकं नाप्यणुकं भणामि ।
आत्मानमात्माङ्गनयाथस्ति कामी नखाच्छिखान्तं पुलकाभिरामी ॥''40
हे सुनामिन् ! शरीर मात्र के स्पर्श से ही कामी जन अङ्गना के स्पर्श से अपने को नखशिख रोमांच युक्त कर लेता है । फिर भी वह कहे कि में व्यापक हूँ, एक हूँ, यह कहाँ तक सम्भव होगा । 'मैं' वह अव्यापक या अणु हूँ, कुछ भी नहीं कर रहा हूँ। नियति के आधीन रहने से स्वतन्त्रता कहाँ है ? प्रत्येक कर्म की स्थिति से दोष मात्र ही है या कहाँ है। क्योंकि शुभाशुभ कर्मानुसार दोष-गुण दोनों आते रहते हैं । ये सब प्रयोग भोग विषयों में ही हैं । तुम्हारी उत्कृष्ट वाणी इससे भिन्न है । पवित्र ज्ञान रूपी नौका से इस संसार रूपी नदी को पार किया जा सकता है ।
उक्त भाव को महाकवि ने निम्न श्लोक से व्यक्त किया है - "स्वतन्त्रतान्यङ नियतेस्तु का वा दोषैकता वा प्रतिकर्मभावात् । भुक्तौ प्रयुक्तौ न पराश्रया वाक् सरित्तवार्थ्यं शुचिबुद्धिनावा ॥47 अग्रिम श्लोक में भी दर्शन की ही अभिव्यक्ति है"अहो कथििचद्विभवेत्प्रकृत्या पक्तिर्जलस्यानलवत्प्रवृत्या । अमत्रवत्तत्र पस्त्रनिष्ठां स मुक्तवाँस्त्वं जगतः प्रतिष्ठाम् ॥42