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प्रथम अध्याय / 19 । तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन (उत्तरायण-दक्षिणायन) का एक वर्ष (अब्द) ह्येता है। इस प्रकार वर्ष के अनेक अवयव होने से नित्यत्व और एकत्व दोनों सम्भव नहीं हैं । इसी प्रकार आत्मा में भी नित्य एकत्व करना उचित नहीं है।
ऐसे ही श्लोक संख्या बानवें में भी इसी वस्तु का विवेचन कर तीन प्रकार के तत्त्व पर बल दिया गया है, जो दर्शनीय है
"काष्ठं यदादाय सदा क्षिणोति हलं तटस्थो रणकृत्करोति । कृष्टा सुखी सारथिरेव रौति न कस्त्रिधा तत्त्वमुरीकरोति ॥135
तटस्थ रथकार (बढ़ई) जिस काष्ठ को काट एवं छीलकर हल बनाता है, जिससे खेत जोतने वाला कृषि उत्पन्न कर सुखी होता है । इसी प्रकार रथारूढ़ सारी सुखी एवं नेतन होने से शब्द करता है । अतः जड, जीव और आत्मा (परमात्मा) इन तीन तत्त्वों को कौन नहीं स्वीकार करता है ? (परन्तु यह ध्येय है कि जैन सिद्धान्तों में चेतन अणु स्वरूप है अतएव एकत्व न होकर अनन्तत्व है)।
इसी प्रकार निम्न में भी सामान्य विशेष भाव से सामान्य और विशेष को सिद्ध किया गया है । यथा
"निःशेषतद्व्यक्तिगतं नरत्वं विशिष्यते गोकुलतस्ततस्त्वम् । सामान्यशेषौ तु सतः समृद्धौ मिथोऽनुविद्धौ गतवान्प्रसिद्धौ ॥36
यहाँ कहा गया है कि सामान्यतः व्यक्ति में, यह नर है नरत्व की स्थिति प्रतीति होती है । विशेष रूप से उसका नामकरण अथवा गोकुल आदि अमुक स्थान से आया हुआ है, यह विशेष रूप से बोध होता है। इस प्रकार सामान्य और विशेष रूप में ही सत्य से अनुविद्ध प्रतीति होती है । यही वस्तु जड और चेतन में भी समझनी चाहिए । आगे के श्लोक में इसी का स्पष्टीकरण किया गया है -
"सदेतदेकं च नयादभेदाद द्विधाऽभ्यधात्त्वं चिदचित्प्रभेदात् । ... विलोडनाभिर्भवतादवश्यमाग्यं च तक्रं भुवि गोरसस्य ॥"37..
यहाँ वर्णन है कि हे भगवन्, वह यह एक है इस अभेद सिद्धान्त को जड और चेतन भेद से आपने दो प्रकार का कहा है । ठीक ही है, क्योंकि लोक में गोरस दुग्ध के बने हुए दही को मथने से घृत होता है । इस प्रकार दुध का ही परिणाम भूत तक्र और धृत
अनादि सिद्ध द्वैत दर्शन को व्यक्त करते हुए कहा गया है । यथा"भवन्ति भूतानि चितोऽप्यकस्मातेभ्योऽथ सा साम्प्रतमस्तु कस्मात् ।। स्वलक्षणं सम्भवितास्ति यस्मादनादिसिद्धं द्वयमेव तस्मात् ॥"38 एक चित्त से भूत मात्र की उत्पत्ति होती है । वह उत्पत्ति जड भूतों से क्यों मानी जाय?