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14/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन का अनुकरण कर रहा है । यज्ञभूमि में मंगल कलश रखे जाते हैं जो नायिका के उन्नत स्तन के सदृश हैं । मंगल कलश भी फल सहित होता है, नायिका स्तन भी पतिसंयोगशाली होने से सफल है । यज्ञभूमि निर्मल पुष्प से अंलकृत होती है, नायिका भी निर्मल प्रसन्न मुख से युक्त है । यज्ञ भूमि शेष आदि नागों के विघ्न दूर करने के लिये होता है । यहाँ द्विजराजचन्द्र का तिरस्कार नायिका मुख से व्यक्त किया गया है । इस प्रकार यहाँ यज्ञ कराने वाले पुरोहित जो सांसारिक प्रयोजन से नि:स्पृह होते हैं, शीघ्र ही मुट्ठी से भरे अक्षत को यज्ञ भूमि पर छोड़े।
याज्ञिक प्रक्रिया को महाकवि ने काव्य में कई स्थलों पर दिखाया है, जो उसके भारतीय संस्कृति के लिये अमिट अनुराग का प्रतीक है । कवि का संगीत प्रेम :
महाकवि ने इस महाकाव्य के दशम सर्ग में सुलोचना-जयकुमार के माङ्गलिक परिणय संस्कारावसर पर अनेक वाद्यों का मनोरम वर्णन किया है, जो श्लोक संख्या सोलह से लेकर इक्कीस तक दिखाया गया है । यथा
"सघनं घनमेतदास्वनत् सुषिरं चाशु शिरोऽकरोत्स्वनम् । स ततेन ततः कृतो ध्वनिः सममानद्धममानमध्वनीत् ॥" प्रभवन्मृदुलाङ्क रोदयं . स्वयमित्यत्र तदानको ह्यम् । सरसं धरणीतलं यदप्यकरोच्छ ब्दमयं जगद्वदन् ॥" "तदुदात्तनिनादतो भयादपि सा सम्प्रति वल्लकीत्ययात् । विनिले तुमिवाशु तादृशि पृथुले श्रीयुवते रिहोरसि ॥" "प्रणनाद यदानकः तरामंपि वीणा लसति स्म सापरा । प्रसरद्रससारनिर्झरः स निसस्वान वरं हि झर्झरः ॥" "युवतेरुरसीति रागतः स तु कोलम्बक मेवमागतम् । समुदीक्ष्य तदेय॑याऽधरं खलु वेणुः सुचुचुम्ब सत्वरम् ॥" "शुचिवंशभवच्च वेणुकं बहु सम्भावनया करेऽणुकम् । विवरैः किमु नाङ्कितं विदुर्हडकश्चेति चुकूज सन्मृदुः ॥"
__(ज.म. 10/16, 17, 18, 19, 20, 21) अमर कोश में चार प्रकार के वाद्यों के भेद बताये गये हैं तत, आनद्ध, सषिर, घन। वीणा आदि बाजे को तत संज्ञा से कहा गया है । आनद्ध मृदंग आदि बाजे के लिये प्रयोग होता है । सुषिर यह वंशी, अलगीजा शंख आदि बाजे के लिये कहा जाता है । घन कांसे का बाजा, घण्टा, झाल आदि के लिये प्रयोग होता है । तत के भेद में वादित्र, आतोद्य आते