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________________ प्रथम अध्याय /13 शरीर से हर्ष-विनोद स्त्री सहवासादि सुख भोगता हुआ सहज भाव से जीवन यापन कर रहा था, जिसके यहाँ धर्मार्थ काम रूप त्रिवर्ग अविरोध पूर्वक सेवन किये जा रहे थे यह महाकवि का अभिप्राय है। गृहस्थ धर्म के प्रति कवि का सहज अनुरागः कवि ने इस महाकाव्य के द्वितीय सर्ग में विनत मस्तत जय कुमार को मुनिराज के मुख से गृहस्थाश्रम का विशद रूप में सर्ग पर्यन्त उपदेश कराया है जो अत्यन्त मनोरम एवं हितावह है । इसके अनुसार गृहस्थ को आन्तरिक शुद्धि के लिये शास्त्रों का चिन्तन-मनन करना चाहिए जिसमें उसे वेद, वेदाङ्ग, छन्दशास्त्र, काम शास्त्र, अर्थशास्त्र, संगीत, वास्तुकला (वास्तु शास्त्र) आदि के प्रति सतत जागरूक रहना चाहिए । गोमय लेपन द्वारा गृह शुद्धि तथा गोमूत्र सेवन करने से व्यक्ति पवित्र होता है क्योंकि गौ उत्तम देवता है। यथा "धेनुरस्ति महतीह देवता तच्छ कृत्प्रस्रवणे निषेवता । प्राप्यते सुशुचितेति भक्षणं हा तयोस्तदिति मौढचलक्षणम् ॥21 किन्तु गोमूत्र, गोमयसेवनकर्ता को मुर्ख बताया गया है । उसी सर्ग के श्लोक एक सौ पच्चीस में गृहस्थ के लिये मांस, मदिरा, पराङ्गना सेवन वेश्यागमन, आखेट क्रीडा, यूत क्रीडा, तस्करता तथा नास्तिकता को त्याग करने के लिये विशेषोपदेश किया गया है । यथा "द्यत-मांस-मदिरा-पराङ्गना-पण्यदार-मृगया-चुराश्च ना। नास्तिकत्वमपि संहरेत्तरामन्यथा व्यसन सङकुला धरा ॥22 कवि ने गृहस्थाश्रम को अच्छा बनाये रखने की आवश्यकता पर बल दिया है । कवि का यज्ञानुराग : ___ इस महाकाव्य के द्वादश सर्ग में श्लोक संख्या पच्चीस, छब्बीस, सत्ताइसवें श्लोकों में यज्ञ भूमि का वनिता के साथ सादृश्य देकर मनोरम वर्णन किया गया है । यथा - "किल कामितदायिनी च यागावनिरित्यत्र पवित्रमध्यभागा । तिलकायितम दीपकासावथ रम्भारुचितोरुशर्मभासा ॥" "वनितेव विभातु निष्कलङ्का सफलोच्चैः स्तनकुम्भशुम्भदका। विलसत्रिवलीष्टनाभिकुण्डा शुचिपुष्पाभिमतप्रसन्नतुण्डा ॥" "द्विजराजतिरास्कि यार्थमेतल्लपनश्रीरितिशिक्षणाय वेतः । द्रुतमक्षतमुष्टिनाथ यागगुरुराडे नमताडयद्विरागः ॥" ज.म. 12/25, 26, 27 यज्ञ भूमि का मध्य भाग विशाल एवं पवित्र होता है । वनिता का मध्य भाग पवित्र (वज्राकारी) अति कृश होता है । यज्ञ भूमि में मनोरम दीपक है, जो नायिका के तिलक सदृश है । यज्ञ भूमि के चारों कोनों पर कदली स्तम्भ लगा रहता है जो नायिका के विशाल उरू भाग (जंघा) के सदृश है । यज्ञभूमि में यज्ञकुण्ड बना रहता है, जो नायिका के नाभि
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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