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________________ 12 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन किये गये हैं । परन्तु 'थाली पुलाक' न्याय से ही यहाँ दिखाया गया है । निःसन्देह कवि भूरामल जी अनेक शास्त्रविद् होने के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रकाण्ड पण्डित थे । कवि की न्यायगति एवं राजनीति प्रवीणताः जो राजा शस्त्र एवं शास्त्र दोनों के प्रयोग में कुशल होता है, उसका जीवन सर्वथा सुदृढ़ एवं सुखमय होता है । न्याय शास्त्र में पक्ष, सपक्ष, हेतु द्वारा विपक्ष व्यावृत्ति पूर्वक साध्य की सिद्धि बतलायी गयी है । शास्त्रार्थी परपक्ष को दूषित कर अनुमान व्यभिचरित कर देता है, जिससे परपक्ष की पराजय सिद्ध होती है, जिसका उदाहरण अवलोकनीय है "जयेच्छु रादुषितवान्विपक्षं प्रमापणैकप्रवणैः सुदक्षः । हे तावुपात्तप्रतिपत्तिरत्र शस्त्रैश्च शास्त्रैरपि सोमपुत्रः ।। 16 प्रकृत पद्य में सोमपुत्र जय कुमार को शस्त्र और शास्त्र दोनों के प्रयोग में प्रवीण बताया गया है । शस्त्र के द्वारा शत्रु मारण में दक्षता एवम् शास्त्र के द्वारा प्रमाण के व्यवहार में कुशलता इन दोनों गुणोंसे युक्त होने के कारण विजयाभिलाषी इस कुमार ने शत्रु पक्ष को भली-भाँति "नष्ट कर हरा दिया । इस प्रकार व्यक्त होता है कि कवि न्यायशास्त्र के सिद्धान्त का अच्छा जानकार था, साथ ही विजय-पराजय की विधि को जानने के कारण राजनीति प्रवण भी था । जयोदय महाकाव्य के द्वितीय सर्ग में राज धर्म एवं कर्तव्य का विवेचन है । यथा"वर्णिगेहिवनवासियोगिनामाश्रमान् परिपठन्ति ते जिना: । नीतिरस्त्यखिलमर्त्य भोगिनी सूक्तिरेव वृषभृन्नियोगिनी ॥ "17 1117 भाव है कि राजाओं का यह धर्म एवं कर्तव्य है कि प्रजाजन को छः इतियों से बचाते हुए धर्मार्थ, काम में उन्हें सदैव प्रवृत्त करें । इसके लिये त्रयी वार्ता एवं दण्डनीति का भी यथासम्भव प्रयोग करना चाहिए। लौकिक सदाचरणों के नियमों का संग्रह करना त्रयी कहलाती है । वर्णाश्रम के नियमानुसार आजीविका का विधान करना वार्ता एवं अपराधियों को यथा योग्य दण्ड देना दण्डनीति कहलाती है । इसके विपरीत करने से दण्डदाता को नरक मिलता है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है" । 1 इसी प्रकार तृतीय सर्ग के प्रथम श्लोक में भी राजकर्तव्यादि का निर्देश है, जो जय कुमार के आचरणानुसार व्यक्त किया गया है । यथा 'धर्मकर्माणि मनो नियोजयन्वित्तवर्त्मनि करौ प्रयोजयन् । नर्मशर्मणि शरीरमाश्रयन् स व्यभात्समयमाशु हाययन् ॥ 20. 44 अर्थ यह है कि राजा जयकुमार धर्म, कर्म अर्थात् यज्ञानुष्ठान आदि धर्म कार्यों में मन लगाता हुआ एवं हाथों से पुरुषार्थ के साथ अर्थोपार्जन करता हुआ तथा (आसक्तिहीन होकर )
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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