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प्रथम अध्याय / 5
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4. जयोदय : प्रणीत नैषध महाकाव्य को संस्कृत साहित्य में महाकवि हर्ष की उत्कृष्ट रचना माना जाता है । नैषध के पश्चात् जयोदय भी उस कोटि की कल्पना से परिपूर्ण है । 28 सर्गात्मक विशालकाय इस महाकाव्य में जयकुमार सुलोचना के सुप्रसिद्ध कथानक का आश्रय लेकर कथावस्तु की रचना की गयी है । इसमें महाकवि की काव्य प्रतिभा और पाण्डित्य का अपूर्व समन्वय हुआ है । ग्रन्थ की शैली गरिमा परिपूर्णा एवं हृदय हारिणी है । इसमें अपरिग्रह व्रत का माहात्म्य दिखाया गया है। प्रथम मुद्रण वि. सम्वत् 2006 में महावीर प्रेस किनारी बाजार आगरा से कपूरचन्द्र जैन द्वारा हुआ जिसके प्रकाशक ब्रह्मचारी सूरजमल (सूर्य मल जैन) श्री 108 श्री वीरसागर महामुनि जी हैं। प्रथम प्रकाशन में यह 1000 प्रतियों में प्रकाशित हुआ । मुनि श्री ज्ञानसागर ग्रन्थमाला के पंचम पुष्प के रूप में इस काव्य का दूसरी बार प्रकाशन हुआ । यह त्रयोदशसर्ग मात्र का है। जिस पर कवि की स्वोपज्ञ संस्कृत टीका एक हिन्दी अनुवाद भी है। इसके प्रधान संपादक सिद्धान्ताचार्य पं. हीरालाल जैन, प्रकाशक और मन्त्री हैं पं. प्रकाश चन्द्र जैन। यह प्रकाशन
राजस्थान ब्यावर से हुआ है। 1000 प्रतियों में प्रकाशित इस प्रकाशन में मुद्रक महावीर प्रेस भेलूपुर, वाराणसी है । इसका प्रकाशन वर्ष वि.सं. 2035 एवं ई. सन् 1978 है ।
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जयोदय महाकाव्य के पूर्व ही कवि ने वीरोदय महाकाव्य का भी निर्माण कर दिया था क्योंकि जयोदय के सर्ग 24 की समाप्ति में स्वयं " श्री वीरोदयसोदरेऽतिललिते सर्गोऽरिदुर्गेऽप्यथन्' ऐसा कहकर कवि ने जयोदय को वीरोदय महाकाव्य का सोदर बताया है ।
जयोदय के प्रथम संस्करण एवं द्वितीय संस्करण में श्लोकों की संख्या और क्रम दोनों में ही अन्तर देखने को मिलता है । जैसे द्वितीय संस्करण में
"यस्य प्रताप व्यथितः पिनाकी गङ्गामभङ्गा न जहात्यथाकी । पितामहस्तामरसान्तराले निवासवान् सोऽप्यभवद्विशाले ॥"
(ज.म. 1/8 )
" रसातले नागपतिर्निविष्टः पयोनिधौ पीतपटः प्रविष्टः । अनन्यतेजाः पुनरस्ति शिष्टः को वेह लोके कथितोऽवशिष्टः ॥ "
(ज.म. 1 / 9 )
ये दोनों ही श्लोक जयोदय महाकाव्य के प्रथम प्रकाशन में नहीं हैं। इसी प्रकार आगे श्लोकों की संख्या में भी परिवर्तन दिखायी देता है। 'गुणैस्तु पुण्यैक पुनीतमुर्ते : " प्रथम संस्करण में इस श्लोक की संख्या नवीं है जबकि द्वितीय संस्करण में दसवीं ।
इसी प्रकार प्रथम संस्करण के सर्ग दो का 119 वाँ श्लोक द्वितीय संस्करण में नहीं
है ।
इसी प्रकार श्लोकों की संख्याओं में अन्तर भी पाया जाता है । उदाहरणार्थ प्रथम संस्करण द्वितीय सर्ग का 128वाँ श्लोक द्वितीय संस्करण के 124 वीं संख्या में है । जयोदय के प्रथम संस्करण के 15वें सर्ग तथा परवर्तीय सर्गों में ऐसे तमाम श्लोक हैं, जिनकी कोई संख्या नहीं है । या तो प्रकाशन में यह प्रमाद हो गया है या ऐसे श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।