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प्रथम अध्याय / 3
और साहित्य के ग्रन्थों का अध्ययन किया । उस समय विद्यालय के अध्यापक वैदुष्य सम्पन्न तथा सभी ब्राह्मण थे । अतः जैन ग्रन्थों को पढ़ाने में उदासीनता रखते थे एवं पाठकों की हतोत्साहित भी करते किन्तु भुरामल जी के हृदय में जैन ग्रन्थों के अध्ययन एवं उनके प्रकाशन की प्रबल इच्छा थी । अतएव आपने 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' इस नीति को अपनाकर जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया ।
यह बात भी स्मरणीय है कि आपके अध्ययन काल में पण्डित उमराव सिंह जी जो कालान्तर में ब्रह्मचर्य प्रतिमा अङ्गीकार कर ब्रह्मचारी ज्ञानानन्द जी के नाम से प्रसिद्ध हुए, उनके द्वारा जैन ग्रन्थों के अध्ययनाध्यापन में अधिक प्रोत्साहन मिला । उस समय ज्ञानानन्द जी धर्मशास्त्र का अध्यापन करते थे । यही कारण है कि पण्डित भूरामल जी पश्चात् मुनि बने तथापि अपनी रचनाओं में उन्होंने उनका गुरु रूप से स्मरण किया है ।
वाराणसी अध्ययनानन्तर पुनः राणोली ग्राम में गये यद्यपि उस समय गृह परिस्थिति समीचीन नहीं थी एवं अनेकशः विद्वान् विद्यालयाध्ययनानन्तर विद्यालयों और पाठशालाओं में वैतनिक सेवारत हो रहे थे तथापि आप को यह रुचिकर नहीं लगा अपितु ग्राम में दुकानदारी करते हुए नि:स्वार्थ भाव से स्थानीय जैन बालकों का अध्यापन प्रारम्भ किया और यह व्यापार लम्बे समय तक रहा । एवं छोटे भाईयों की शिक्षा-दीक्षा की देख-रेख में लग गये ।
उक्त समय में आपकी युवावस्था विद्वत्ता एवं गृह संचालन आजीविकोपार्जन योग्यता देखकर विवाह हेतु अनेक सम्बन्धी आये एवं विवाहार्थ भाई एवं सम्बन्धियों का अधिक आग्रह हुआ परन्तु अध्ययन काल से ही यह आपका मानस संकल्प बन चुका था कि आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर जैन साहित्य निर्माणार्थ एवं प्रचार-प्रसारार्थ जीवन व्यतीत करूँगा इसलिये विवाह के विषय में आपने इंकार कर दिया । दुकान के कार्य को भी गौण बनाकर तथा बड़े भाइयों पर उसका उत्तरदायित्व छोड़कर अध्यापनातिरिक्त शेष समय को साहित्य की साधना में ही लगाने लगे जिसके फलस्वरूप अनेक ग्रन्थ संस्कृत और हिन्दी में आपके द्वारा लिखे गये ।
संस्कृत साहित्य में सात ग्रन्थ आपके विख्यात हैं एवं हिन्दी साहित्य में चौदह ग्रन्थ आपने लिखे । ज्ञात हुआ है कि इसके अलावा भी इनके द्वारा रचित और भी ग्रन्थ है, लेकिन उनकी पाण्डुलिपियाँ मुझे उपलब्ध नहीं हो सकी ।
आपने न्याय, व्याकरण, साहित्य एवं जैन वाङ्मय का गम्भीर अध्ययन कर पूर्ण आनन्द का अनुभव किया । विक्रम सम्वत् 2004 में ब्रह्मचर्य दीक्षा ग्रहण की । ब्रह्मचारी अवस्था में भी सन् 1950 में श्री 108 आचार्य सूर्य सागर के चातुर्मास के समय दिल्ली पहुँचे वहाँ आचार्य श्री सूर्यसागर जी के पास ही अनेक व्यक्तियों से भेंट हुई। वार्तालाप प्रसङ्ग से यह अवगत हुआ कि आपने संस्कृत में काव्य ग्रन्थों का प्रणयन किया है। विक्रम सम्वत् 2012