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________________ स्वर्गीय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी (भूरामलजी शास्त्री) का कृतित्व एवं व्यक्तित्व जयोदय महाकाव्य तथा अन्य अनेक ग्रन्थों के निर्माता पण्डित श्री भूरामल जी शास्त्री ने वि. सं. 1948 में राजस्थान प्रदेश में जयपुर के सन्निकट राणोली ग्राम को अपने जन्म से अलंकृत किया था । खण्डेलवाल जैन कुलोत्पन्न छावड़ा गोत्रिय सेठ सुखदेव जी उनके पितामह थे । पिता क नाम श्री चतुर्भुज जी एवं माता घृतवरी देवी थीं' । ये पाँच भाई थे जो क्रमशः छगनलाल, भूरामल, गंगा प्रसाद, गौरीलाल और देवीदत्त नाम से विख्यात हैं । पिता का देहावसान विक्रम सम्वत् 1959 में हुआ। पितृदेहावसान काल में उस समय ज्येष्ठ भ्राता छगनलाल की आयु 12 वर्ष की थी एवं कनिष्ठ पंचम भ्राता देवीदत्त का जन्म पिता की मृत्यु के पश्चात् हुआ । पिता के अकाल काल कवलित होने से पारिवारिक जीवन के वहन करने में अस्तव्यस्तता अधिक बढ़ गयी । उस समय भूरामल की आयु दस वर्ष की थी । अग्रिम शिक्षा में साधन की विकलता होने से एक वर्ष पश्चात् अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ गया चले गये एवं जैनी सेठ की दुकान पर जीवन निर्वाहार्थ कार्य सीखने लगे । कुछ दिनों के बाद स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी में किसी महोत्सव में भाग लेने के लिये एक छात्र आ रहा था। उसी के साथ भूरामल जी भी अध्ययन की भावना को लेकर अपने भाई की आज्ञा लेकर वाराणसी चले आये । उस समय ये पंचदश वर्षीय थे। स्याद्वाद महाविद्यालय में अध्ययन करने वाले पण्डित वंशीधर, पं. गोविन्द राय एवं पण्डित तुलसी राम जी इनके सतीर्थ थे। वास्तविक योग्यता परीक्षा देने से प्राप्त करना सम्भव नहीं अपितु आदयोपान्त ग्रन्थाध्ययन से ही सम्भव है । अतएव आपने कोई परीक्षा नहीं दी । अहर्निश ग्रन्थाध्ययन में प्रवृत्त हुये। स्थिति दयनीय होने के कारण गमछे बेंचकर अपने भोजन व्यय आदि का आपने निर्वाह किया । उस समय जैन व्याकरण साहित्य आदि के ग्रन्थ कम ही प्रकाशित हुए थे । उक्त महाविद्यालय के छात्र अधिकांशतः अजैन व्याकरण और साहित्य के ग्रन्थ ही पढ़कर परीक्षाओं को उत्तीर्ण किया करते थे। यह देखकर आपको अधिक पश्चात्ताप होता था कि जैन आचार्यों से निर्मित व्याकरण साहित्यादि ग्रन्थों का जैन छात्र अध्ययन न करके केवल परीक्षोत्तिर्णता के प्रलोभन से प्रवृत्त हो रहे हैं । लोगों के प्रयास से इस महाकवि कल्प अन्य जन भी इस पर विचार करने लगे । तथा जैन न्याय और व्याकरण के ग्रन्थ भी प्रकाशित होने लगे। लोगों की प्रेरणा से काशी विश्वविद्यालय और कलकत्ता के परीक्षालय के पाठ्यक्रम में ये ग्रन्थ रखवाये गये । परन्तु जैन काव्य उस समय तक बहुत कम ही थे जो थे वे भी अल्प मात्रा में प्रकाश में आये । महाकवि के हृदय में उसी समय यह भावना उत्पन्न हुई कि अध्ययन समाप्ति के पश्चात् मैं इस कमी की पूर्ति करूँगा । वाराणसी में आपने जैन न्याय, व्याकरण
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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