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अष्ठम अध्याय / 203 "गणिकाऽपणिका ऽखिलैनसांमणिका चत्वरगेव सर्वसात् ।
कणिकाऽपि न शर्मणस्तनोझणि काऽस्यां प्रणयो नयोज्झितः ॥42 बंशस्थबिल :
जिसके चारों चरण में जगण, तगण, जगण, रगण हो उसे 'बंशस्थबिल' छन्द कहते हैं । इस वृत्त से पूर्ण महाकाव्य के कतिपय श्लोक अवधेय हैं - (क) “स सर्पिणी वीक्ष्य सहश्रुतश्रुतामथैकदाऽन्येन बताहिना रताम्।
प्रतर्जयामास करस्थकञ्जतः सहेत विद्वानपदे कुतो रतम् ॥44 (ख) “गतानुगत्याऽन्यजनैरथाहता मृता च साऽकामुकनिर्जरावृता ।
गतेर्षया नाथचरामराङ्गना भवं बभाणोक्तमुदन्तमुन्मनाः ॥45
इसी प्रकार इस वृत्त से कोई सर्ग वंचित नहीं है । शिखरिणी :
जिसके चारों चरण में यगण, मगण, नगण, सगण, भगण तथा अन्त में एक लघु और एक गुरु हो, उसे शिखरिणी छन्द कहते हैं । छः और ग्यारह पर विराम होता है । इस वृत्त के चित्रण में सिद्धहस्त महाकवि के प्रकृत महाकाव्य से एक श्लोक उद्धृत है -
"अभूद् दारासारे ष्वखिलमपि वृत्तं त्वनुवदन्, समासीनः सम्यक् सपदि जनतानन्दजनकः । तदेतच्छु त्वाऽसौ
विघटितमनोमोहमचिरात्, सुरश्चिन्तां चके मनसि कुलटायाः कुटिलताम् ॥147
ऐसे ही बहुशः उदाहरण ग्रन्थ में भरे पड़े हैं। . पृथ्वी :
जिस छन्द के चारों चरणों में जगण, सगण, जगण, सगण, यगण लघु तथा अन्त में गुरु हो और आठ तथा नौ अक्षरों पर यति हो, उसे पृथ्वी छन्द कहते हैं । इसका लक्षण छन्दोमञ्जरी में इस प्रकार दिया गया है -
"जसौ जसयला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः ।48 इस वृत्त से उपनिबद्ध एक श्लोक द्रष्टव्य है - "अनङ्क रितकूर्चकं
ससितदुग्धमुग्धस्तवं, भुनक्त्यपि सकूर्चकं लवणभावभृत्तक वत् । न दृष्टु मपि फाण्ट वद्धवलकूर्चकं वाञ्छ ती त्यहो पुरुषमेककं क्षितितले त्रिधा साञ्चति ॥149
इस प्रकार इस सर्ग के शेष श्लोक में अनुष्टुप्, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, रथोद्धता, प्रभृति छन्दों का वर्णन कर शार्दूलविक्रीडित छन्द से सर्ग का पर्यवसान कर दिया गया है ।