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- सप्तरी
सप्तम अध्याय /183 आगे के श्लोकों में भी दार्शनिक तत्त्वों को 'अस्ति' 'नास्ति' की पद्धति दिखाकर व्यक्त किया गया है। 22. प्रतिभौचित्य : आचार्य क्षेमेन्द्र ने कहा है कि ऐश्वर्य से चमत्कृत गुणवानों के उज्जवल
कुल के समान प्रतिभौचित्य के प्रभाव से कवि का काव्य सुशोभित होता है । जयोदय महाकाव्य में प्रतिभा के द्वारा महाकवि ने यहाँ रति की अच्छी व्यंजना करायी
है
"लताप्रताने गता महति या चकर्ष कान्तं परिरम्भधिया । मुमुदे साम्प्रतमितो वयस्या वलयस्वनेन वध्वास्तस्याः ॥192
यहाँ बन विहार वर्णन के प्रसङ्ग में कहा गया है कि लताओं की जहाँ सान्द्रता थी, . ऐसे विशाल वन प्रदेश में जो नायिका आलिङ्गन की बुद्धि से कान्त को अपनी ओर खींची उसी समय इधर उसकी सखियाँ, कंकण ध्वनि से प्रसन्न हो गयीं।
यहाँ आलिङ्गन बुद्धि से प्रियतम को अपनी ओर खींचना और उसी क्षण कंकण ध्वनि का होना तथा कंकण ध्वनि से सखी में प्रसन्नता का होना या हर्ष का उत्पन्न होना नायकनायिका की व्यङ्गय रूप में प्रकट रति का सूचक है जो प्रतिभा के द्वारा ही व्यक्त किया गया है।
इसी प्रकार अनेकशः पद्य ऐसे प्रकरणों में इस महाकाव्य में दर्शनीय है, जिनको दिखाने से कलेवर विशाल हो जायेगा इसलिये एक ही उदाहरण पर्याप्त है । 23. अवस्थौचित्य : आचार्य क्षेमेन्द्र ने अवस्थौचित्य को बतलाया है कि जिस प्रकार बुद्धिमानों
के कार्य संसार में आदरणीय होते हैं, उसी प्रकार अवस्था की अनुकूल वर्णना से काव्य भी जगत् में प्रशंसनीय होता है | अवस्थौचित्य का निरूपण भी इस महाकाव्य में बहुस्थलों में है। यथा"नैषावेगं तावकं सम्विसोढुं शक्ता नैनां खेदयेतीहवोढुः ।। कर्णोपान्ते रत्युदात्तस्य गत्वा प्राहोढाया नूपुरं नाम सत्वात् ॥''94
इस पद्य में वर्णन किया गया है कि परिणय संस्कार सम्पन्न एवं रति क्रीडा में कुशल नायक के कानों के समीप ऊढा नायिका के नूपुर जा पहुँचे । उस समय कवि उत्प्रेक्षा के द्वारा यह व्यक्त करता है कि यह नूपुर मानो कान के समीप पहुँचकर यह नायक से कह रहा है कि यह तुम्हारे वेग को सहन करने में समर्थ नहीं हैं, इसलिये इसको अधिक खिन्न मत कर । यह ऊढा नायिका का अवस्थानुरूप वर्णन इसके लिये समीचीन है । 24. विचारौचित्य : विचारौचित्य के सम्बन्ध में क्षेमेन्द्र ने लिखा है कि विचारौचित्य के द्वारा
सूक्तियाँ उसी प्रकार रमणीय बन जाती है, जिस प्रकार ज्ञेय तत्त्व के ज्ञान से विद्वानों की विद्याएँ रमणीय हो जाती हैं । .