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184/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
जयोदय महाकाव्य के पच्चीसवें सर्ग में इस प्रकार के वर्णन का बाहुल्य है । जैसे"क्षणरुचिः कमला प्रतिदिङ्मुखं सुरधनुश्चलमैन्द्रियकं सुखं । विभव एष च सुप्तविकल्पवदहह दृश्यमदोऽखिलमधुवं ॥16
इस श्लोक में कहा गया है कि आकाश मण्डल में चंचल इन्द्र धनुष और इन्द्रिय सुख के समान लक्ष्मी क्षण काल के लिये ही दीप्तिशालिनी ठहरती हैं । यह वैभव भी स्वप्नकालिक पदार्थ के सदृश है । सम्पूर्ण दृश्य पदार्थ ही अध्रुव है ।
परवर्ती श्लोकों में भी इस प्रकार के रूप दर्शनीय हैं, जो सांसारिक सुख निवृत्ति एवं जयकुमार के वैराग्योत्पादक हैं । जैसे
"युवतयो मृगमञ्जुललोचनाः कृतरवाद्विरदामदरोचनाः । लहरिवत्तरलास्तुरगाश्चमू समुदये किमु दृक् झपनेऽप्यमूः ॥१7
यहाँ यह दिखाया गया है कि नेत्र के बन्द हो जाने पर मृगाक्षी युवतियाँ, मत्तहाथी, चंचल घोड़े सेना ये सब क्या अभ्युदयार्थ होते हैं? अर्थात् नहीं।
यहाँ सारा जगत् नश्वर है । एक ब्रह्म तत्त्व जिन (अर्हन्) ही ध्रुव एवं सत्य है । इस विचार को व्यक्त करने के दृष्टि से ही यह सर्ग प्रस्तुत है । - अतएव विचारौचित्य प्रदर्शन में यहाँ पूर्ण योग प्राप्त होता है । 25. नामौचित्य : नामौचित्य के विषय में आचार्य क्षेमेन्द्र का कथन है कि जिस प्रकार मनुष्य
के अपने कर्म के अनुकूल नाम से गुण-दोष की अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार उचित नाम से काव्य के भी गुण दोष की अभिव्यक्ति से यथार्थ ज्ञान होता है।
जयोदय महाकाव्य में नामौचित्य बहुशः स्थलों में है । स्वयंवर वर्णन प्रसङ्ग में इसे भलीभाँति देखा जा सकता है । इस औचित्य से सम्बन्धित उदाहरणों पर दृष्टिपात करें
"स्मररूपाधिक एषोऽस्ति कामरूपाधिपोथ च मनोज्ञा । रतिमतिवर्तिन्यस्यादस्यासि च बल्लभा योग्या ॥ अनुनामगुणममुं पुनरहोरहोवेदिनीमनीषाभिः । नत्वापसापदोषाप्यनङ्ग रूपाधिकं भाभिः ॥199
प्रकृत पद्य में इस प्रकार वर्णन किया गया है । स्वयंवर भूमि में माल्यार्पण के लिये राजकुमारों के सम्मुख जब सुलोचना पहुँचती है तब राजकुमारों का परिचय उसे विद्या देवी देती हैं । उसी प्रसङ्ग में एक राजकुमार के विषय में कहा जा रहा है कि यह काम रूपाधिप है अथवा स्मर रूपाधिप है और तुम सुन्दरी हो अतएव इसकी वल्लभा बनने के योग्य हो। यह सुनकर सुलोचना समझती है कि कामरूपाधिप कहने से कामाङ्ग में गुप्तरूप से व्याधि को धारण करता है अर्थात् यह नपुंसक है अतएव उसे अङ्गीकार नहीं की।