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________________ 182/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन इस भाव की अभिव्यक्ति महाकवि के शब्दों में निम्नस्थ है"जयस्यहो आदिमतीर्थनाथः शक्रादिभिस्त्वं परिणीतगाथः ।। हितस्य वर्त्मत्वकया पवित्रं न्यदेशि तत्त्वं भुवनस्य मित्रम् ॥''86 आगे का श्लोक भी इस औचित्य से अछूता नहीं हैं । यथा"हे देव दोषावरणप्रहीण त्वामाश्रयेद्भक्तिवशः प्रवीणः । नमामि तत्त्वाधिगमार्थमारान्न मामितः पश्यतु मारधारा ॥187 प्रकृत पद्य में कहा गया है कि दोष वरण से परित्यक्त हे देव । भक्ति के आधीन हुआ कुशल व्यक्ति तुम्हारा शरण लेता है । तत्त्व के यथार्थ ज्ञान के लिये मैं प्रणाम कर रहा हूँ । काम की धारा मुझ पर दृष्टिपात न करे। - इसी सर्ग का पचहत्तरहवाँ श्लोक भी इसके लिए दर्शनीय है "भवन्ति भो रागरुषामधीना दीना जना ये विषयेषु लीनाः । त्वां वीतरागं च वृथा लपन्ति चौरा यथा चन्द्रमसं शपन्ति ॥188 .... राग क्रोध के आधीन हुए जन दुःखी होकर विषयों में लीन होते हैं । जिस प्रकार चोरगण अपने चौर कृत्य के वाधक चन्द्रमा को शाप देता हैं (उलाहना करते हैं) उसी प्रकार विषयासक्त व्यक्ति तुम्हें व्यर्थ बताते हैं । महाकाव्य में अग्रिम श्लोक भी इसी औचित्य का परिचायक है - "राज्ञामिवाज्ञा भवतां जगन्ति गताऽविसम्वादतया लसन्ती । शिशोरिवान्यस्य वचोऽस्त्वपार्थं मोहाय सम्मोहवतां कृतार्थम् ॥''89 यहाँ वर्णन है कि जिस प्रकार राजाओं की आज्ञा संसार में निर्विरोध मान्य एवं शोभित होती है, उसी प्रकार आपकी आज्ञा निर्विरोध शोभित है । अन्य लोगों की वाणी बालक के कथन की भाँति भले ही निरर्थक एवं मोह में पड़ने वाले व्यक्तियों के लिये मुग्धकारक हो किन्तु आपकी वाणी ही ग्राह्य है । इसी प्रकार सारसंग्रहौचित्य से पूर्ण अग्रिम श्लोक निम्नस्थ शब्दाङ्कित है"विरागमेंकान्ततया प्रतीमः सिद्धौ रतः किन्तु भवान् सुषीम । विश्वस्य सञ्जीवनमात्मनीनं स्याद्वादमुझेत्किमहो अहीन ॥''90 यहाँ यह कहा गया है कि - हे अपरित्याज्य में यह समझता हूँ कि शुद्धि के विषय में निश्चित ही विरक्तता आवश्यक है । आप भी इस पक्ष के सर्वथा पोषक एवं तत्परता के यथार्थ सीमा हैं । संसार के आत्मकल्याण एवं संजीवन, आश्चर्य है कि स्याद्वाद को क्या छोड़ा जा सकता है ? अर्थात् नहीं । इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त ही निश्चयात्मक दृढ़ मार्ग है । इस दिशा में कवि ने संकेत किया है ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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