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174/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
प्रकृत पद्य में एक वचन का प्रयोग समुचित रूप में किया गया है। इसी प्रकार इसी सर्ग के आगे के श्लोकों में यह औचित्य दर्शनीय है । यथा -
"पुरतः पुरुषोत्तमस्य सेवाथ सुता भूभृत उग्रतेजसे वा । सुकलाशुकलाधराय शर्मनिधये प्रीतिजनन्यनन्यधर्म ॥''55
इस पद्य में कहा गया है कि पुरः स्थिति पुरुषोत्तम सेना के लिये अथवा शोभन कला परिपूर्ण कल्याण की निधि को धारण करने वाले, जिसमें अन्य धर्म का निवास नहीं है, ऐसे प्रेमोत्पादक जयकुमार के लिये सुलोचना ने माला को हाथ में धारण किया ।
यहाँ पुरुषोत्तम उग्रतेज से कलाधर हैं । 'शर्मनिधये' आदि में एक वचन का प्रयोग समुचित हैं क्योंकि सती साध्वी सुलोचना का वरण एक ही व्यक्ति को करना है यद्यपि अनेकशः राजकुमार उपस्थित हैं किन्तु उसके हृदय में एक स्थित है अतः एक वचन का प्रयोग समुचित
10. विशेषणौचित्य : जयोदय महाकाव्य में विशेषणौचित्य भी पग-पग पर देखा जा सकता
है। विशेषणौचित्य के सम्बन्ध में आचार्य क्षेमेन्द्र का कथन है कि जहाँ समुचित विशेषण . से विशेष्य चमत्कृत होता है, उसे विशेषणौचित्य कहते हैं । जिस प्रकार गुणवान् मित्रों के द्वारा गुणी सज्जन पुरुष प्रतिष्ठित हो जाता है। प्रकृत महाकाव्य में इस औचित्य से सम्बन्धित एक उदाहरण पर दृष्टिपात करें - "गेहमेक मिह भुक्तिभाजनं पुत्र तत्र धनमेव साधनम् । तच्च विश्वजनसौहृदाद् गृहीति त्रिवर्गपरिणामसंग्रही ॥'57
इस पद्य में गृहस्थ महत्त्व वर्णन प्रसंग में कहा गया है कि घर ही भाग का स्थान है, पुत्र ही धन है । विश्व मात्र में सौहार्द होने से गृही गृहस्थ बनता है । उसी गृही के लिये त्रिवर्ग परिणाम संग्रही (धर्मार्थकाम तीनों के परिपाक हेतु संग्राहक) यह विशेषण समुचित है । ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थी संन्यासी सब गृहस्थ पर ही आधारित है । गृही के द्वारा ही सबका पालन पोषण समभाव्य है, इसीलिये उक्त विशेषण यथार्थ है । 11. उपसौचित्य : औचित्य विचार चर्चा के चौबीसवीं कारिका में उपसर्गौचित्य का निरूपण
करते हुए क्षेमेन्द्र ने कहा है कि जिस प्रकार सत्कर्म में व्यय होने से सम्पत्ति बढ़ती रहती है, उसी प्रकार प्रपरादि उपसर्गों से सत्काव्योक्ति प्राप्त होती है । जयकुमार का प्रभाव (प्रतापाग्नि) नि:शेष अर्थात् सम्पूर्ण दिशाओं में (प्रत्येक समय) वृद्धि को प्राप्त हुआ । यथा -
"निःशेषकाष्ठांतरुदीर्णमाप प्रभावमेतस्य पुनः प्रतापः । रविः कवीन्द्रस्य गिरायमेष तस्यैव शेषः कणसन्निवेशः ॥"59