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सप्तम अध्याय /175 प्रकृत पद्य में 'निः' उपसर्ग सम्पूर्ण स्थानों में व्याप्त प्रतापाग्नि को दिखाने के उद्देश्य से प्रयोग किया है, जिससे यहाँ उपसर्गौचित्य है ।
इस प्रकार आगे के सर्गों में भी यह औचित्य भरापुरा है । यथा"विपत्त्रेऽपि करे राज्ञः पत्रमत्रेति सन्ददत् । अपत्रपतयाप्यासीत् स दूतो मञ्जु पत्रवाक् ॥60
इस पद्य में राजा के पत्रहीन हाथ में पत्र का होना विरोधाभास का परिचायक है तथा विपत्ति से रक्षा करने वाला हाथ है । यह 'वि' उपसर्ग दोनों अर्थों के देने में सिद्ध है अतएव यहाँ अत्यन्त मनोरम उपसर्गौचित्य का प्रयोग किया गया है । 12. निपातौचित्य : निपातौचित्य के सम्बन्ध में क्षेमेन्द्र का कथन है कि जैसे मन्त्रियों की
नियुक्ति से कोष (खजाना) अक्षय रहता है वैसे ही निपातों के उचित स्थानों पर प्रयोग होने से अर्थसंगति सन्देहरहित दृढ़ होती है । निपात अप, च, वा, ह, अहो आदि अव्यय पद माने गये हैं इनका प्रयोग उचित स्थान पर होने से काव्य रम्य होता है ।
जयोदय महाकाव्य के प्रायः प्रत्येक सर्गों में निपातौचित्य का स्थान मिलता है । इसके उदाहरणों की गणना करना या दिखाना सम्भव नहीं है फिर भी इस दिशा की ओर भी दृष्टि न डालना अच्छा नहीं । इसलिये 'स्थालीपुलाक' न्याय से एक उदाहरण पर दृष्टिपात करें
"यथोदये हस्तमयेऽपि रक्तः श्रीमान् विवस्वान् विभवकभक्तः । विपत्सु सम्पत्स्विव तुल्यतैवमहो तटस्था महतां सदैव ॥62
उक्त पद्य में कहा गया है कि श्रीमान् विवस्वान् 'सूर्य' उदय और अस्त काल में लाल ही रहते हैं तथा धन सम्पत्ति की समृद्धि करने वाले हैं । आश्चर्य है कि विपत्ति और सम्पत्ति दोनों समय में महान् व्यक्तियों की निरन्तर तटस्थता ही पायी जाती है । ___ यहाँ 'अहो' तथा 'अविर' निपात का सन्निवेश कवि ने रम्यता हेतु किया है, जो अत्यन्त आकर्षक है। 13. कालौचित्य : कालौचित्य के निरूपण में आचार्य क्षेमेन्द्र का कथन है कि जिस प्रकार
समयोचित वेश विन्यास से अवसर ज्ञाता सज्जनों का शरीर शोभित होता है, उसी प्रकार कालकृत औचित्य अनुस्युत अर्थो के द्वारा काव्य अपूर्व सौन्दर्य को प्राप्त करता है ।
जयोदय महाकाव्य में कालौचित्य अपना अद्वितीय स्थान रखता है, जिसका चित्ताकर्षक उदाहरण निम्नलिखित है
"पतत्यसौ वारिनिधौ पतङ्गः पद्मोदरे सम्प्रति मत्तभङ्गः । आक्रोडकद्रोनिलये विहङ्गः शनैश्चरम्भोरुजनेष्वनङ्गः ॥164 यहाँ सूर्यास्त काल के वर्णन प्रसंग में महाकवि ने इस प्रकार वर्णन किया है । यह