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सप्तम अध्याय /173 स्तुति के समान पक्षी गण मधुर शब्द करने लगे चक्रवाक पक्षी के युगल जोड़े परस्पर मिलने के लिये चलने लगे यतिराज जैसे मुक्ति की इच्छा करता है, वैसे ही कमल कुडमलता (संकोचिता) से मुक्त होने लगे । इसी प्रकार आगे के श्लोकों में वर्णन है कि-जब आकाश में बहुत से रत्न समूह चन्द्र नष्ट होने लगे चन्द्र भी करशून्य मंदता को प्राप्त होने लगा । उल्लू अपने शीघ्र ही छिपने के लिये जाने लगा एवं जलराशि में कुछ गति होने लगी । पुष्पकणों से युक्त मंद-मंद वायु पहुँचाने के लिये बहने लगा एवं रात्रिवेग से निकल गयी । इस संदेश के श्रावकों नगरों की मनोरम ध्वनि होने लगी । तब सूत गण उत्सव हेतु मधुर रम्य गान करने लगे। जो महाकवि के शब्दों में निम्नस्थ प्रस्तुत है
लुप्तोरुरत्ननिचये वियतीव ताते चन्द्रे तु निष्करदशामधुना प्रयाते। घूकेऽपकर्मनयने द्रुतमेव जाते मन्दं चरत्यभिगमाय किलेति वाते ॥ सुप्ते विजित्य जगतां त्रितयं तु कामे लुप्ते तदीय धनुषो विरवेऽतिवामे । उप्ते रथाङ्गगयुगचञ्चुपुटेऽभिरामेऽहोरात्रकस्य मधुरे चरमेऽत्र यामे ॥ नन्दत्वमञ्चति विद्योर्मधुरे प्रकाशे पर्याप्तिमिच्छति चकोरकृते विलासे । सत्स्पन्दभावमधिगच्छति वारिजाते सर्वत्र कीर्णमकरन्दिनि वाति वाते ॥ यन्नाक्षि चाक्षिपदहोपलकांशमासामेणी दृशान्तु रतिरासबृहद्विलासात् । प्राभुज्जवाद्रजनिनिर्गमनैकनाम सन्देशकस्य पटहस्य खोऽभिरामः ॥52
उक्त श्लोकों में प्रात:काल के वर्णन में सप्रम्यन्त पदों की योजना के द्वारा प्रातः काल की सम्पूर्ण वैभव की विभूतियों का वर्णन परिपूर्ण दिखायी देता है । इस प्रकार यहाँ अधिकरणौचित्य का सम्यक् परिपालन किया गया है । 9. वचनौचित्य : क्षेमेन्द्र ने वचनौचित्य को इस प्रकार व्यक्त किया है । प्रतिपाद्य अर्थ के
अनुसार एक वचन द्विवचन, बहुवचन के प्रयोग से काव्य उसी प्रकार सौन्दर्य को प्राप्त करता है, जिस प्रकार दीनता से रहित धन्यवादार्ह मन वाले विद्वानों का मुख चारुता को प्राप्त होता है ।
वचनौचित्य का प्रयोग इस महाकाव्य में अनेक स्थलों में है, सबका दिखाना सम्भव नहीं है तथापि सर्ग 10 के एक सौ ग्यारहवें श्लोक में इसका मनोज्ञ चित्रण हुआ है । यथा
"कुसुमगुणितदाम निर्मलं सा मधुकररावनिपुरितं सदंसा । गुणमिव धनुष स्मरस्य हस्तकलितं संदधती तदा प्रशस्तम् ॥154
इस पद्य में सुन्दरी द्वारा पुष्प-माला धारण करने का वर्णन किया गया है । सुन्दर स्कन्धप्रदेश वाली सुलोचना निर्मल पुष्प से गुथे गये एवं सुगन्ध के कारण भ्रमर के ध्वनि से भरे हुए कामदेव के धनुष की मौर्वी की भाँति प्रशस्त हाथों से बनायी गयी माला को स्वयं बरावसर में धारण की।