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षष्ठ अध्याय / 139
परुष वर्ण हीनता सुकुमारता गुण अर्थगत प्राचीनों ने वस्तु स्वभाव के सुस्पष्ट वर्णन में स्वीकार किया है । इसे सहोक्ति अलंकार में आचार्यों ने अन्तरभूत किया है ।
कान्ति गुण रस दीप्ति को कहते हैं जो रस दीप्ति की प्रधानता में रस ध्वनि में या उसकी अप्रधानता में गुणीभूत व्यङ्ग्य में अन्तर्भूत हो जायेगा ।
विचित्र वर्णन को प्राचीनों ने श्लेष गुण कहा है। वह वैचित्र्य या समूह का वर्णन विद्वत्तापूर्ण दो वस्तुओं के समर्थन योग्य कौटिल्य, अप्रसिद्ध वर्णन का अभाव अनुल्वणत्व, उपपादक, युक्तियों का विन्यास उपपत्ति आदि है । इन सबों का जहाँ योग हो ऐसे रचना (विचित्रता) को श्लेषण - गुण कहा है जो केवल विचित्रता मात्र है । काव्य का जो अद्वितीयरस है उसका उपकारक न होने से यह गुण नहीं है ऐसा आचार्यों का कथन है ।
विपरीत सम्वाद के अभाव को समता गुण कहा गया है। यदि काव्य में ऐसी समता न हो तो प्रक्रम भंगतारूप दोष हो जायेगा इसलिये यह समता दोषाभावरूप ही है । प्राचीनों का जो समाधि गुण है, उसका लक्षण है अर्थ का दृष्टिरूप
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'अर्थ दृष्टिः समाधिः'
इसके दो भेद हैं अजोनि दूसरा छायायोनि । यह दो प्रकार का वर्णन काव्य में अद्वितीय शोभाजनक नहीं है किन्तु काव्य के शरीर का निष्पादक मात्र है । इसलिये ये भी गुण नहीं है ।
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इस प्रकार इन बीस गुणों का खण्डन कर मम्मट विश्वनाथ आदि आचार्यों ने तीन की (माधुर्य, ओज, प्रसाद) स्थापना की है । इन तीन गुणों के लक्षण तथा उनके व्यंजक वर्णों को इस प्रकार बताया है।
माधुर्यगुणः
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सहृदयों के हृदय को द्रवित करने वाले प्रायः आनन्द रूप (दुःख से अभिश्रित ) को माधुर्य गुण कहते हैं । यद्यपि रस भी आनन्द स्वरूप है तथापि माधुर्य गुण और रस को एक नहीं कह सकते क्योंकि रस का अंग रूप धर्म है गुण । जिसे आचार्य विश्वनाथ ने अपने अभीष्ट ग्रन्थ में मनोरम रूप में चित्रित किया है । यथा
"चित्तद्रवीभावमयो ह्रादो माधुर्यमुच्यते ।"३
काव्य प्रकाशकार आचार्य मम्मट ने माधुर्य को द्रुति का कारण बताया है । उससे चित्त द्रवित होने का कारण माधुर्य है ऐसा व्यक्त होता है। इस प्रकार कुछ अंश में काव्य प्रकाशकार के साथ साहित्यदर्पणकार का विरोध सा प्रतीत होता है। कारणता को दूर करने के लिए विश्वनाथ ने द्रवीभाव को परिष्कृत कर दिया है जिससे द्रवीभाव और आह्लाद में भेद की प्रतीति न होने से अभिन्न रूप से ही बोध होता है। इस प्रकार आह्लाद और माधुर्य एक ही हो जाता है। यह माधुर्य क्रमशः सम्भोग शृङ्गार, करुण, विप्रलम्भ शृङ्गार और उससे भी अधिक शान्त रस में पाया जाता है ।