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________________ जयोदय में गुण विमर्श काव्य - जगत् में रस की प्रधानता प्रायः सब लोग स्वीकार करते हैं। उन रसों में गुण रहता है । यह आनन्दवर्धनाचार्य, आचार्य मम्मट, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ, पं. राज जगन्नाथ प्रभृति स्वीकार करते हैं । उनके अनुसार माधुर्य, ओज, प्रसाद तीन गुण माने गये हैं । ये गुण शब्दार्थाश्रित होते । वामन आदि ने बजाय तीन के दस-दस गुण माने हैंप्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता I व्यक्तिरुदारत्व " श्लेषः अर्थ I ओजः कान्तिसमाधयः 11 ये दस गुण शब्द और अर्थ में माने गये हैं। लक्षण भेद मात्र से भेद है । परन्तु इन शब्दअर्थगत बीस गुणों का आचार्य मम्मट, विश्वनाथ आदि सभी आचार्यों ने खण्डन किया है। इन में कुछ तो दोषाभाव रूप से हैं कुछ वाग् वैचित्र्य मात्र हैं । कतिपय न मानने से काव्य दोष उत्पन्न होते हैं एवं कुछ का तीन गुणों में ही अन्तर्भाव किया गया है । 1 इस प्रकार इनका खण्डन कर माधुर्य, ओज प्रसाद तीन गुणों की स्थिति आचार्यों ने स्वीकार की है' । इस प्रकार शब्दगत श्लेष, समाधि, उदारता प्रसाद गुणों का वामनादि प्राचीनोक्त गुणों का ओज में अन्तरभाव है । प्राचीनोक्त माधुर्य गुण का माधुर्य में अन्तरभाव स्वीकार किया है । क्योंकि पृथक्-पृथक् पद हों अर्थात् समस्त न आते हों उन्हें माधुर्य कहते हैं । इस प्रकार माधुर्य में ही अन्तर भाव बताया गया है। अर्थव्यक्ति गुण का प्रसाद में अन्तरभाव किया गया है क्योंकि प्राचीनोक्त अर्थ गुण शीघ्र ही अर्थबोध करा देने में माना गया है। कान्तिगुण ग्राम्य दोषाभाव एवं सुकुमारता दुःश्रवत्व दोषाभाव स्वरूप है । अभिन्न मार्ग से वर्णन करना ही समता गुण है । वह कहीं-कहीं रस प्रतिकूल वर्णन में दोष हो जायेगा । यदि रसानुकूल हुआ तो उसी में ही अन्तरभाव हो जायेगा । इस प्रकार शब्दगत दस गुणों का खण्डन किया गया है । . अर्थगत ओज, प्रसाद, माधुर्य, सुकुमारता, उदारता गुण दोषाभाव रूप ही है । क्योंकि साभिप्राय वर्णन को प्राचीनों ने ओज कहा है । यदि अभिप्राय शून्य वर्णन होगा तो अपुष्टार्थत्व दोष हो जायेगा । I इसी प्रकार अर्थ विमलता को प्रसाद गुण माना है । यदि निर्मलता नहीं होगी तो अधिक पदत्व दोष में चला जायेगा । उक्ति वैचित्र्य को प्राचीनों ने माधुर्य गुण कहा है। यदि उक्ति वैचित्र्य न हो तो अनवीकृतत्व दोष हो जायेगा ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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