________________
130/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
वह क्यों न पवित्र होगी ? अर्थात् अवश्य पवित्र होगी । यह वाक्यार्थ नैषधकार हर्ष की पंक्ति का साक्षात् अनुसरण करता है ।
यथा
-
'पवित्रमत्रातनुते जगद्युगे स्मृता रसक्षालनयेव यत्कथा । कथं न सा मद्गिरमाविलामपि स्वसेविनीमेव पवित्रयिष्वयति ॥ ' इसी प्रकार अधिकांश स्थल दर्शनीय हैं -
11175
"पयोधरो भूतचतुः समुद्रां समुल्लसद्वत्सलतोरुमुद्राम् । प्रदक्षिणीकृत्य स गामनुद्राग् जगाम चैकान्तमहीमशूद्राम् ॥"
11176
प्रकृत पद्य महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य के द्वितीय सर्ग के श्लोक में निर्दिष्ट है । ऐसे ही बहुश: समस्त पद योजनादि लक्षित होते हैं । तथापि आधुनिक युग में इस प्रकार के महाकाव्य की पंक्तियों में प्रकृत महाकाव्य का प्रमुख स्थान है क्योंकि शब्द शृङ्खला अर्थ योजना अलङ्कार -प्रदर्शन पद्धति, शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार दोनों की स्थिति में आलस्य शून्य प्रतीत होते हैं ।
सर्ग की विशालता एवं श्लोकों की बहुलता यद्यपि इस महाकाव्य में पर्याप्त है, तथापि इनमें अलङ्कारों की योजना में कहीं शैथिल्य का अनुभव नहीं होता । अतः अलङ्कार प्रणयन में सिद्धहस्त महाकवि वाणीभूषण ब्रह्मचारी भूरामल जी शास्त्री का उत्कर्ष किस सहृदय के हृदय को आवर्जित नहीं करेगा ।
I
प्रथम अलङ्कारों के साधनत्व एवं परिपोषकत्व की बात कही गयी, किन्तु यह भी विचारणीय है कि अलङ्कार कहीं-कहीं अलङ्कार्य भी होते हैं । जिन उदाहरणों में अलङ्कार व्यङ्गय है, वहाँ उनकी प्रधानता होने से 'अलङ्कार' नहीं अपितु 'अलङ्कार्य' है । अलङ्कार्य होने पर भी 'ब्राह्मण श्रमणन्याय' से उनमें अलङ्कारत्व का व्यवहार होता है 167 । विवेचित अलङ्कारों में अनन्वय, अर्थश्लेष और विरोध के व्यङ्ग्य होने के कारण ये उन उन स्थलों में अलङ्कार्य भी होते हैं ।
1
1. सं. शब्द. कौ., 4. निरुक्त, 10/1/2
पृष्ठ 135
फुट नोट
2. शत. ब्रा. 13/8/4 5. पाणिनि सु., 3/2/37
6. कृत्वालङ्कारमात्मनः
7. अलंकृतं शुभैः शब्दैः समयेर्दिव्यमानुषैः ।
छन्दोवृत्तैश्च विविधैरन्वितं विदुषां प्रियम् ॥
3. छान्दोग्य उप. 8/8/5
बा. रामा..,
2/40/13
महा.भा., पृ. 1/27