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पंचम अध्याय / 129
(क) “श्यामं मुखं मे विरहैकवस्तु एकान्ततोऽरक्तमहोमनस्तु । प्रत्यागतस्ते ह्यधराग्रभाग एवाभिरूपे मनसस्तु रागः ॥ ''167 (ख) “कान्तारसद्देशचरस्य चक्षुः क्षेपोऽभवत्सद्विपेषु दिक्षु । अद्वैतसम्वादमुपेत्य वाणमोक्षः क्षणाद्वा सवयस्यकारणः ॥ (ग) अनुष्ठितं यद्यदधीश्वरेण तत्तत्कृतं श्रीसुदृशाऽऽदरेण ।
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येनाध्वना गच्छति चित्रभानुस्तेनैव ताराततिरेति सानु || 169 (घ) " ननु जनो भुवि सम्पदुपार्जने प्रयततां विपदामुत वर्जने ।
मिलति लाङ्गलिकाफलवारिवद व्रजति यद् गजभुक्तकपित्थवत् ॥ 70 (ङ) “परः परागः प्रकृतः प्रयागः स्फुरन्शरीरे सहजोऽनुरागः ।
सौवर्ण्यमायात्वधुनेति मे हि संस्नाति मृत्स्नातिशयेन गेही ॥ "71 (च) "सदेह देहं मलमूत्रगेहं बूयांसुरामत्रमिवापदेऽहम् । तद्योगयुक्त्या निवहेद पांशु शुतिः स्रवत्स्वेदनिपाति पांशु ॥ 172 इसी तरह अनन्त पद्य प्रकृत अलङ्कार से व्याप्त हैं ।
इस महाकाव्य के अवलोकन से यह प्रतीत होता है कि महाकवि वाणीभूषण ब्रह्मचारी भूरामल जी शास्त्री को काव्य रचना काल में अलङ्कारों के सन्निवेश की स्थिति में मस्तक खुजलाना नहीं पड़ा । अपितु 'अहमहम् पूर्विकया' अलङ्कार स्वयं जुटते गये । आरम्भ से लेकर महाकाव्य की समाप्ति पर्यन्त अलङ्कारों के सन्निवेश में अनायास सफल दिखते हैं । इस महाकाव्य में महाकवि श्री हर्ष की छाया अधिकांशत: प्रतीत होती है । जयोदय महाकाव्य के प्रथम सर्ग में सर्वप्रथम जिन भगवान् के इच्छानुसार अपूर्व गुणों से सम्पन्न महाराज जयकुमार ( हस्तिनागपुर ) हस्तिनापुर के शासक हुए जिनकी कथा एक बार श्रवण से भी अमृत पीने की इच्छा व्यर्थ प्रतीत होती है । यथा
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'कथाप्यथामुष्ययदि श्रुतारात्तथा वृथा साऽऽर्य सुधासुधारा । कामैकदेशरिणी सुधा सा कथा चतुर्वर्गनिसर्गवासा ॥ 173
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अर्थात् अमृत केवल कामस्वरूप एक ही पुरुषार्थ प्रदान करता है। परन्तु महाराज जयकुमार की कथा धर्मार्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाली है । पुनः महाकवि आगे कहते हैं
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" तनोति पूते जगतो विलासात्स्मृता कथा याऽथ कथं तथा सा । स्वसेविनीमेव गिरं ममाऽऽरात् पुनातुनातुच्छरसाधिकारात् ॥"
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जयकुमार की लीला कथा के स्मरण मात्र से ऐहलोक - परलोक दोनों पवित्र हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में ग्रन्थकार का कथन है कि मेरी वाणी जो इस कथा का सेवन करेगी