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116/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
भी दो प्रकार का विरोध निष्पन्न होगा एवं द्रव्य का द्रव्य के साथ विरुद्ध प्रकृति में एक प्रकार का विरोध होगा । ऐसे ही जाति, गुण, क्रिया, द्रव्य के साथ पारस्परिक जाति विरुद्ध प्रतीत हो वहाँ चार प्रकार के विरोध होंगे। इस तरह दस प्रकार का विरोधाभास निष्पन्न होता है । विरोधाभास अलङ्कार का इस महाकाव्य में अधिकांशतः प्रयोग दिखायी देता है । जैसे"विषमेषुहि तेनैव समेषु हितकारिणा । "सन्देह धारिणाप्यारात् सन्देह प्रतिकारिणा ॥ . तदा सन्मूनिस्त्नेन मूनि रत्नं तदापि सत् । सृदृग्गुणानुसारेणऽसुदृक सिद्धान्तशालिना ॥1104
यहाँ वर्णन है कि जो कामदेव के सदृश सुन्दर और भद्र व्यक्तियों का हित करने वाल है, सुन्दर शरीरधारी एवं सन्देह का निवारक है सुलोचना के सौन्दर्य आदि गुणों के सेट्रप होता हुआ भी प्राणी के दर्शन का अभिप्राय (सुलोचना मिलने पर ही जी सकूँगा, इस प्रकार रखने वाला है सज्जनों के शिरोमणि उस जयकुमार ने अपने मस्तक पर मनोहर मणिमय मुक धारण किया । यहाँ शाब्दिक विरोध प्रतीत होता है । इसी प्रकार अट्ठाईसवें सर्ग में भी इस अत्यन्त रम्य प्रयोग है । यथा -
"सदाचार विहीनोऽपि सदाचार परायणः । स राजापि तपस्वी सन् समक्षोऽप्यक्षरोधकः ॥705
जयकुमार में वीतरागता उत्पन्न होने पर तपश्चर्या की प्रवृत्ति की गति-विधि के प्रसरणं काल में स्थिति का वर्णन करते हुए महाकवि ने व्यक्त किया है कि वह जयकुमार सदाचारहीन होते हुए भी सदाचार में तत्पर बना । राजा होते हुए भी तपस्वी हुआ, समदृष्टि रखते हुए भी समदृष्टि का निवारक बना । यहाँ कथन विरुद्ध है, क्योंकि सदाचारहीन होने पर सदाचार में तत्पर नहीं रहा जा सकता । इसका परिहार यह है कि वह गुप्तचर के हीन (अर्थात् गुप्तचर से शून्य होकर जन वर्ग से पृथक् हो) सदाचार में तत्पर हुआ । राजा होते हुए भी तपश्चरण विरुद्ध वस्तु है। इसका परिहार यह है कि वह दीप्तिमान (कान्तिशाली) होते हुए भी तपश्चर्या में प्रवृत्त हुआ । समदृष्टि और समदृष्टि का प्रतिबन्धक होना विरुद्ध है। इसका परिहार यह है कि वह सबके प्रति समान दृष्टि रखते हुए भी अक्ष विरोधक अर्थात् जितेन्द्रिय बना ।
इसी प्रकार निम्नस्थ श्लोक में भी यह अलङ्कार चित्ताकर्षक है - "अनेकान्तप्रतिष्ठोऽपि चैकान्त स्थितिभभ्यगात् । अकायक्लेशसम्भूतः कायक्लेशमपि श्रयन् ॥106
वह एकान्त में स्थित नहीं था और एकान्त स्थिति में था यह विरुद्ध है । इसका परिहार है कि उसकी स्थिति अनिश्चित रूप में नहीं थी अर्थात् दृढ़ थी । चंचलता का अभाव एवं