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________________ इसी सर्ग का एक और दृष्टान्त प्रस्तुत है . - " अहमहो हृदयाश्रयवत्प्रजः स्वजनवैरकरः पुनरङ्गजः 1 भवति दीपकतोऽञ्जनवत्कृतिर्न नियमा खलु कार्यकपद्धतिः || 100 जिस समय महाराज अकम्पन ने सुमुख नामक दूत को समन्वय हेतु चक्रवती भरत के पास भेजा और दूत के मुख से अपने पुत्र अर्ककीर्ति एवं सोम वंशावतंश जयकुमार के वृतान्त को श्रवण कर भरत को हार्दिक कष्ट हुआ विरोध परिस्थिति को वे सहन करने में समर्थ नहीं हुए । इसलिये अपने पुत्र अर्ककीर्ति को ही दोषी ठहराये। उन्होंने कहा कि अर्ककीर्ति आत्मीय जन से ही बैर करने वाला हो गया । प्रदीप से कज्जल की उत्पत्ति होना सत्य ही है । कारणानुसार कार्य होता है यह सर्वथा निश्चित नहीं है । यहाँ पर भी 'न नियमा खलु कार्यक पद्धति' इस वाक्य द्वारा मेरे जैसे सत्कुल में अर्ककीर्ति दीपक से उत्पन्न कज्जल की भाँति आत्मीयजनों से विरोधकर कलङ्क उत्पन्न कर दिया । यह कार्यकारण भाव विरुद्ध है, क्योंकि सत्कुल से उत्पन्न व्यक्ति में कलङ्क नहीं आना चाहिए । परन्तु यहाँ कलङ्क अर्ककीर्ति बताया जा चुका । अतएव कारणानुसार कार्य होता है यह नियम सर्वथा निश्चित नहीं है। इस प्रकार विशेष का सामान्य से समर्थन किया गया है । पंचम अध्याय / 115 19. पर्यायोक्त : जहाँ प्रकारान्तर से व्यङ्ग को ही वाक्य रूप में कह दिया जाय, वहाँ पर्यायोक्त अलङ्कार होता है 101 । जो पर्यायोक्त अलङ्कार गूढ़ प्रतीत होता है एवं आचार्यों का जिसके सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है, उस पर्यायोक्त अलङ्कार के चयन में भी ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री चुके नहीं हैं। जैसे 44 विशालं निचयैस्तु सुनाशीर - व्योमयानं शिखरप्रोतवसुसञ्चयशोचिषाम् 1 11102 जहास यत् इसमें यह वर्णन किया गया है कि जयकुमार के विवाह काल हेतु जो मण्डप बना हुआ था वह अत्यन्त विशाल था उसके ऊपरी भाग में ओतप्रोत रत्न राशियों की कान्ति के समूह से इन्द्र विमान का भी उपहास कर रहा था । वह विवाह मण्डप इन्द्र विमान से भी अत्यन्त रमणीय था, यह ध्वनि व्यक्त करने के लिये श्लोक का प्रयोग किया गया है । परन्तु उपहास आदि कह करके वह ध्वनि वाच्य सदृश प्रतीत हो रहा है । अतएव पर्यायोक्त अलङ्कार मनोहर है । 20. विरोधः जहाँ विरोध सा भान होता हो उसे विरोधाभासालङ्कार कहते हैं । जाति, गुण, क्रिया, द्रव्य, इन चारों या जहाँ परस्पर विरोध प्रतीत हो इस दृष्टि से यह अलङ्कार दस प्रकार का बन जाता है । अर्थात् गुण क्रिया, द्रव्य के साथ गुण विरुद्ध सा प्रतीत हो वहाँ तीन भेद होंगे । क्रिया द्रव्य के साथ जहाँ क्रिया विरुद्ध रूप से प्रतीत हो वहाँ
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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