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114/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
का भी प्रयोग रहता है । इस प्रकार आठ प्रकार का अर्थान्तरन्यास साहित्यदर्पण में निर्दिष्ट है%
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जयोदय महाकाव्य का नवम् सर्ग इस अलङ्कार के लिए प्रस्तुत है“जयमहीपतुजोर्विलसत्त्रपः सपदि वाच्यविपश्चिदसौ नृपः । कलितवानितरेतरमेक तां मृदुगिरो ह्यपरा न समाता ॥ जिस समय सुलोचना का जयकुमार के साथ सम्बन्ध निष्पन्न हुआ तथा अर्ककीर्ति के साथ विरोध की भावना गाढ़ी जम गई, उस समय सुलोचना के पिता काशी नरेश अकम्पन जयकुमार एवं चक्रवती भरत पुत्र अर्ककीर्ति में उत्पन्न अनैक्य रूप कलङ्क के निवारण के लिये मधुर उक्तियों का प्रयोग कर जय और अर्ककीर्ति में मेल करा दिया । सत्य है मधुर वाणी से बढ़कर सम्मेल कराने वाली अन्य कोई योजना नहीं है । प्रकृत पद्य में काशी नरेश महाराज अकम्पन ने जो दोनों कुमारों में एकता उत्पन्न करा दिया उसमें प्रवचन पद् विपश्चित मधुर वाणी ही समर्थ है। उस विशेष्य वाक्य के समर्थन के लिये सामान्य वाक्य 'मृदुगिरा ह्यपरा न समार्द्रता' से समर्थन कर दिया गया है ।
नीचे प्रस्तुत पद्य में अर्थान्तरन्यास से पूर्ण है
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'अयमयच्छदः' दः धीत्य हृदा जिनं तदनुजां तनुजाय रथाङ्गिनः । सुनयनाजनकोऽयनकोविदः परहिताय वपुर्हि सतामिदम ||""
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जिसका तात्पर्य है कि सुमार्ग विज्ञाता महाराज अकम्पन ने सुलोचना की अनुजा को भगवान् जिन का स्मरण कर चक्रवती पुत्र अर्ककीर्ति को अर्पण कर दिया । क्योंकि सज्जनों का शरीर परोपकार के लिये ही होता है । यहाँ पर भी "परहिताय वपुर्हि सतामिदम् " इस सामान्य वाक्य से उपरोक्त विशेष कथन का समर्थन किया गया है ।
अग्रिम श्लोक भी इस अलङ्कार से शून्य नहीं है । यथा
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" मनसि तेन सुकार्यमधार्यतः प्रतिनिवृत्त्य यथोदितकार्यतः । हृदनुकम्पनमीशतुजः सता क्रमविचारकरी खलु वृद्धा
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इस पद्य में आदिनाथ (आदि पुरुष ) के पुत्र भरत को अपने अनुकूल बनाना ही उचित
है । ऐसा यथोचित कार्यों से निवृत्त होकर अकम्पन ने विचारा । क्योंकि वृद्धता सदैव क्रमिक
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कर्तव्यता का उचित विचार करती है । यहाँ पर ' क्रमविचारकरीखलुवृद्धता' इस सामान्य
है
वाक्य के द्वारा समर्थन किया गया है । यद्यपि उत्प्रेक्षा वाचक शब्द का प्रयोग किया गया परन्तु उससे किसी भी प्रकार उत्प्रेक्षा सम्भव नहीं है । अतः वह निश्चयार्थक मात्र का बोधक 1