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________________ पंचम अध्याय / 113 होने के कारण श्रीधर का अर्थ शोभा सम्पत्ति को धारण करने वाले एवं लक्ष्मी को धारण करने वाले समुद्र अर्थ में भी प्रयोग किया गया है । जिस प्रकार लक्ष्मी का उद्गम स्थान समुद्र हैं उससे रत्नों की उत्पत्ति हुई तथा कन्या रत्न लक्ष्मी को दुश्मन हेतु अर्पण किया था। प्रकृत पद्य में अकम्पन श्रीधर हैं जो सम्पत्ति को धारण करने वाले एवं सुलोचना रूप कन्या रत्न जय के हेतु अर्पण करते हैं । अतएव ये भी समुद्र (रत्नाकर) हैं । इस महाकाव्य में अनन्त श्लोकों में इस अलङ्कार का प्रयोग हुआ है । सप्तम सर्ग का निम्नलिखित श्लोक इस अलङ्कार के लिये द्रष्टव्य है - "अर्क एव तमसावृतोऽधुना दर्शघस्त्र इह हेतुनाऽमुना । एत्यतो ग्रहणतां श्रियः प्रिय इत्यभूदपि शुचा सविक्रयः ॥194 प्रस्तुत पद्य में जयकुमार ने सोचा कि देखो, अमावस्या के दिन सर्य के समान इस मांगलिक बेला में तेजस्वी अर्ककीर्ति भी रोष रूप राहु द्वारा ग्रस्त होकर ग्रहण भाव को प्राप्त हो रहा है । यह सोचकर सुलोचना का पति जयकुमार भी कुछ विकार को प्राप्त हुआ । इसमें श्लेषालङ्कार अनुपमेय है। ऐसे ही इसी सर्ग का अवधेयार्थ पद्य में श्लेष निरूपम है"सोमजोज्वलगुणोदयान्वयाः सम्बभुः सपदि कौमुदाश्रयाः ।। येऽर्क तैजसवशंगताः परे भूतरे कमलतां प्रपेदिरे ॥5 प्रकृत श्लोक में कहा गया है कि सोम या चन्द्रमा के गुणों से प्रेम रखने वाले रात्रि को विकसित करने वाले कुमुद होते हैं, जबकि कमल (अपने विकास के लिये) सूर्य के अधीन होते हैं । इसी प्रकार जयकुमार भी सोम नामक राजा से उत्पन्न और सहिष्णुतादि उज्ज्वल गुणों से युक्त थे । अतः उनके अनुयायी लोग शीघ्र ही कौमुदाश्रय हो गये । अर्थात् भूमण्डल पर हर्ष के पात्र बने । किन्तु जो अर्ककीर्ति के प्रताप के अधीन यानी उसके पक्ष में थे, वे कमलता को प्राप्त हुए । उनके 'क' अर्थात् आत्मा में मलिनता आ गयी । तात्पन्न यह है कि जयकुमार के पक्ष वाले तो प्रसन्न हो उठे, परन्तु अर्ककीर्ति के पक्ष वाले निराशय हो गये । इस प्रकार श्लेष की छटा अद्वितीय है । 18. अर्थान्तरन्यासः जयोदय महाकाव्य में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का भी मनोरम निरूपण किया गया है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का यह अर्थ है कि 'अन्य अर्थः अर्थान्तर तस्ट न्यासः अर्थान्तरन्यासः ।' अर्थात् प्रतिपादित अर्थ के समर्थन के लिये अन्यार्थ का रखना भी अर्थान्तरन्यास कहलाता है । वह समर्थन कहीं सामान्य का विशेष के द्वारा और कहीं विशेष का सामान्य से तथा कार्य का कारण से एवं कारण का कार्य से समर्थन किया जाता है । इस प्रकार चार प्रकार का अर्थान्तरन्यास अलङ्कार निष्पन्न होता है । इन चार प्रकारों में भी समर्थ-समर्थक में कहीं साधर्म्य रहता है और कहीं इससे भिन्न वैधर्म्य
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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