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112/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन होने के लिये स्नान करना भी न्यायोचित है । यहाँ 'धरित्री' (भूमि) पर रजस्वला धर्म युक्त नायिका का आरोप एवं "अर्ववरा' में अर्वसु वराः इति अर्ववराः' श्रेष्ठ घोड़े यह प्रकृत अर्थ है । परन्तु श्रेष्ठ नायक के व्यवहार का आरोप किया गया है। जिसमें स्पर्श होने के कारण स्नान करने की भावना एवं उसके अनुसार कार्य करना न्यायोचित वर्णन किया गया है । अतः समासोक्ति अलङ्कार रम्य है । इसी प्रकार निम्नस्थ श्लोक भी इस अलङ्कार से वंचित नहीं है -
"बलात्क्षतोत्तुङ्गनितम्बबिम्बा मदोद्धतैः सिन्धुवधूढूिपेन्द्र : ।। गत्वाङ्गमम्भोजमुखं रसित्वाऽभिचक्षुमेऽसौ कलुषीकृताऽऽरात् ॥191
यहाँ गजराजों ने हठात् नदी के नितम्ब (तट) को मदोद्यता वश नष्ट कर दिया तथा मध्य भाग में पहुँचकर कमल मुख का चुम्बन किया इससे स्वच्छन्दगामी गजराजों के कृत्य से वह नदी (नायिका) मलीनता (कालुष) से भर गयी । स्वतन्त्रगामी पुरुषों के कुकृत्यों से सत्कुल प्रसूत नायिका में कालुष्य आना स्वाभाविक सिद्ध है । यहाँ नदी में ऐसी नायिका का आरोप एवं स्वछन्दगामी नायक का आरोप गजराज पर किया गया है। इसी प्रकार नायकनायिका व्यवहारारोप से समासोक्ति अलङ्कार रमणीक दिखाया गया है। 17. श्लेषः इस महाकाव्य में श्लेषालङ्कार भी अपना व्यापक स्थान रखता है । श्लेषालङ्कार
के सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ ने लिखा है कि जहाँ अनेक अर्थ के बोधक शब्द प्रयोग किये जाते हैं । (एवं एककाल में दोनों अर्थों का भाव होता हो) वहाँ श्लेषालङ्कार होता है । शब्द-अर्थगत होने से यह द्विधा काव्य बन जाता है । शब्द श्लेष वर्ण, प्रत्यय, लिङ्ग, प्रकृति, पद, विभक्ति वचन, एवं भाषाओं के श्लेष से आठ प्रकार का बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त जहाँ शब्द परिवर्तन के योग्य नहीं होता वहाँ शब्द श्लेष होता है । जहाँ शब्द परिवर्तन करने पर भी अर्थ श्लेष बैठा रहता हो वहाँ अर्थ श्लेषालङ्कार होता है । इस अलङ्कार में प्राचीनों के मतों को लेकर विशाल शास्त्रार्थ का भू-भाग खड़ा किया गया है । परन्तु अन्वय व्यतिरेक कसौटी को लेकर शब्द श्लेष एवं अर्थ श्लेष का आचार्य विश्वनाथ ने निर्धारित किया है । प्रकृत महाकाव्य में अनेकशः स्थलों में श्लेषालङ्कार का प्रयोग किया गया है । जैसे : अर्थ श्लेष का एक उदाहरण"सकरः सकरङ्कभावतस्तां फलवत्तां नृपतेः समाह शास्ताम् । धरति श्रियमेष एव मुक्तः सुतरां सोऽद्यो बभूव सार्थसूक्तः ॥193
इस पद्य में कन्यादान के प्रसङ्ग में श्लेषालङ्कार का अतीव रम्य प्रयोग किया गया है। महाराज अकम्पन श्री को धारण करने से नामतः श्रीधर तो थे ही परन्तु 'कर' अर्थात् झारी से जल छोड़ने एवं कन्या रत्न सुन्दरी सुलोचना को समर्पण करने के कारण वास्तविक श्रीधर लक्ष्मी की उद्गम स्थान समुद्र बन गये । यहाँ धरति श्रियमेष' इस वाक्य में श्री शब्द श्लिष्ट