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________________ पंचम अध्याय / 111 यहाँ नयनाश्रु के साथ भुजे हुए लाजे को मस्तक पर छोड़ने का जो वर्णन किया गया है, वह सहार्थ बोध के द्वारा सहोक्ति अलङ्कार है। युद्धस्थल के वर्णन प्रकार में भी यह अलङ्कार व्यवहृत हुआ है । "पुरोगतस्य द्विषतो वरस्य चिच्छेद यावत्तु शिरो नरस्य । कश्चित्तदानी निजपश्चिमेन विलूनमूर्धा निपपात तेन ॥187 एक योद्धा सम्मुख स्थित बलवान शत्रु के मस्तक को ज्योंही काटा त्योंही उसके पीछे स्थित शत्रु ने उसका भी सिर काट डाला । सिर कटने के साथ-साथ पृथ्वी पर गिर पड़ा। यहाँ भी सहार्थ प्रदर्शित होने से सहोक्ति अलङ्कार का रूप धारण कर लेता है । 16. समासोक्ति : समासोक्ति अलङ्कार अपना इस महाकाव्य पर पूर्ण प्रभाव डाला है । कोई सर्ग इससे शून्य नहीं है । इस अलङ्कार का लक्षण आचार्य विश्वनाथ ने इस प्रकार दिया है कि जहाँ पर कार्यलिङ्ग और विशेषण के द्वारा साधारण अर्थात् साधारण धर्म बनाकर प्रकृत में अप्रकृत वस्तु के व्यवहार का आरोप होता हो, वहाँ समासोक्ति अलङ्कार होता है। प्रायः नायक-नायिका के व्यवहार रूप में इस अलङ्कार का प्रयोग अधिकांशतः मिलता है। इसका उदाहरण उपन्यस्त किया जाता है - "वीरश्रियं तावदितो वरीतुं भर्तुळपायादथवा तरीतुम् । भटाग्रणीः प्रागपि चन्द्रहास - यष्टिं गलालङ्कतिमाप्तवान् सः ॥''89 यहाँ वर्णन है कि वीर श्री सर्वप्रथम मेरा ही वरण करें और इस तरह मुझे स्वामी का उलाहना न प्राप्त हो, एतदर्थ उस युद्ध में किसी योद्धा ने चन्द्रहास नामक असि पुत्री (तलवार) को या चन्द्रहास नामक मुक्तामाला को, अपने गले का अलङ्कार बना लिया । यहाँ समासोक्ति अलङ्कार मनोरम है । इसी प्रकार त्रयोदश सर्ग में भी यह अलङ्कार अपना पूर्ण साम्राज्य स्थापित किये हुए है - "रजस्वलामर्ववरा धरित्रीमालिङ्गच दोषादनुषङ्गजातात् । ग्लानिं गताः स्नातुमितः स्म यान्ति प्रोत्थाय ते सम्प्रति सुस्त्रवन्तीम् ॥' 190 प्रकृत श्लोक में घोड़े धूलिमयी भूमि में लोटकर स्नान करने के लिये नदी में पहुँचे। यहाँ पर रजस्वला भूमि का घोड़ों ने आलिङ्गन कर परन्तु सम्पर्क वशात् उत्पन्न दोष से मलिन हो वहाँ से उठकर स्नान करने के लिये नदी में गये । 'रजस्वला' शब्द श्लिष्ट होकर 'रज' अस्ति अस्यामिति रजस्वला' धूलिमयी भूमि यह प्रकृत वर्णन में है तथा रजोधर्म से युक्त नायिका सुन्दरी का आरोप किया गया है । रजोधर्म युक्त स्त्री के स्पर्श में दोष माना जाता है । आलिङ्गन की बात ही क्या है ? इसलिये मन में मालिन्य आ जाना सुतराम् सिद्ध है । तदनन्तर पवित्र
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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