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________________ 110 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन 14. व्यतिरेक: जहाँ पर उपमान से उपमेय को अधिक अथवा न्यून बताया जाय वहाँ व्यतिरेकालङ्कार होता है । यदि उपमान से उपमेय के आधिक्यवर्णन में अथवा उपमान से उपमेय के न्यूनता के प्रदर्शन में हेतु दिखाये गये हों तो वह एक प्रकार का व्यतिरेक होता है । ऐसे ही उपमेय के आधिक्य न्यूनता का कारण न दिखाने में तीन प्रकार का होता है । इस प्रकार चार प्रकार के कहे हुए भेदों में साम्यबोधकता कहीं शब्दतः कहीं अर्थतः कहीँ आक्षेप से होता है । इस तरह इसके बारह भेद हो जाते हैं । इनमें भी कहीं श्लेष के द्वारा कहीं श्लेष रहित रूप में वर्णन होने से चौबीस प्रकार का व्यतिरेकालङ्कार निष्पन्न होता है । - व्यतिरेकालङ्कार इस महाकाव्य का परम पोषक है । जयोदय महाकाव्य के प्रथम सर्ग में जयकुमार के उत्कर्ष वर्णन प्रसङ्ग में तृतीय श्लोक व्यतिरेकालङ्कार को पुष्ट करता है "कथाप्यथामुष्य यदि श्रुतारात्तथा वृथासार्य ? सुधासुधारा । कामैकदेशरिणी सुधासा कथा चतुर्वगनिसर्गवासा || 84 प्रकृत पद्य में यह कहा गया है कि जयोदय की कथा यदि एक बार भी सुन लिया अमृत की धारा भी व्यर्थ हो जायेगी । क्योंकि अमृत काम ( मनोरथ) को पूर्ण करने वाली है जो मानव जीवन का एक पुरुषार्थ है । परन्तु जयोदय की कथा धर्माथ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को देने वाली है । इस प्रकार जयोदय कथा के सामने अमृत कथा को व्यर्थ बताकर व्यतिरेकालङ्कार निष्पन्न किया गया है । 15. सहोक्ति : जब सहार्थ बोधक साकम्, सार्धम्, समं, सह इत्यादि के बल से दो अर्थों का सम्बन्ध एक से दिया जाता हो, वहाँ मूल में अतिशयोक्ति होते हुए भी सहोक्ति अलङ्कार होता है । प्रकृत महाकाव्य में अनेकों स्थलों में यह अलङ्कार रम्य रूप में निरूपित है । जैसे" तनये मन एतदातुरं तव निर्योगविसर्जने परम् । ललना कलनाम्नि किन्त्वसौ व्यवहारोऽव्यवहार एव भोः 11 अयि याहि च पूज्यपूजया स्वयमस्मानपि च प्रकाशय । जननीति परिश्रुताश्रुभिर्बहुलाजां स्तनुते स्म योजितान् ॥ 1186 सुलोचना की बिदाई के समय उसकी माता इस प्रकार कह रही हैं कि हे पुत्री ! तुझे बिदा करने में मेरा चित्त अत्यन्त खिन्न हो रहा है, किन्तु ललना जाति के लिये यह व्यवहार तो अनिवार्य ही है इसलिये तुम जाओ, पूज्यों की पूजा के द्वारा अपने को और मुझे भी उज्ज्वल करो। इस प्रकार कहकर नयनाश्रु के साथ निःसृत लाजा को मंगलार्थ सुलोचना के मस्तक पर छोड़ी।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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