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पंचम अध्याय / 109 का समूह इतनी शीघ्रता से चलने के लिये तत्पर हुआ कि जैसे बवण्डल के द्वारा उड़ाया गया रूई का गल्ला हो । प्रस्तुत पद्य में कामवाणविद्ध त्वरितगतिशील राजाओं का गमन वायु प्रेरित रूई के गल्ले के सदृश बताया गया है । इन दोनों का उपमानोपमेय भाव एवं साधारण धर्म की एकता होने से साधर्म्य दृष्टान्तालङ्कार है ।
अधोलिखित श्लोक में भी वैधर्म्य मुखेन इसका रम्य निरूपण हुआ है - "सेवक स्य समुत्कर्षे कुतोऽनुत्कर्षता सतः । वसन्तस्य हि माहात्म्यं तरूणां या प्रफुल्लता ॥79
प्रकृत पद्य में जयकुमार के साथ सुलोचना के सम्बन्ध या विरोधी भरत सम्राट् के पुत्र अर्ककीर्ति को लक्ष्य करके यह कहा गया है कि सेवक के उन्नति में स्वामी की अवनति (तिरस्कार) कैसे हो सकती है ? क्योंकि वृक्षों की विकासशीलता जो कुछ होती हो उससे वसन्त ऋतु का महत्व बढ़ता ही है न कि घटता है । यहाँ भी दृष्टान्तालङ्कार सुस्पष्ट है ।
इसी प्रकार इसी सर्ग के प्रस्तुत श्लोक में भी वैधर्म्य मूल से दृष्टान्तालङ्कार मनोरम
"साधारणधराधीशान् जित्वापि स जयः कुतः ।। द्विपेन्द्रो नु मृगेन्द्रस्य सुतेन तुलनामियात् ॥'80
इस श्लोक में जयकुमार के विजय का वर्णन किया गया है कि साधारण धराधिपतियों को जीतकर भी वस्तुतः क्या जयकुमार पूर्ण विजयी कहा जा सकता है ? हाथी यद्यपि अन्य लोगों से या अन्य पशुओं से बड़ा है तो क्या वह सिंह शावक की तुलना में आ सकता है? यहाँ भी दृष्टान्तालङ्कार तिरोहित नहीं है।
दृष्टान्तालङ्कार का दो उदाहरण और द्रष्टव्य है - "प्रत्युपेत्य निजगौ वचोहरः प्रेरितैणपतिवद्भयङ्करः । दुर्निवार इति नैति नो गिरश्चक्रवर्तितनयो महीश्वरः ॥181 यहाँ दृष्टान्तालङ्कार की मनोरम योजना है ।
इसी प्रकार महाराज अकम्पन से दूत की उक्ति जो दृष्टान्त अलंकार की अनुपम छटा से पूर्ण है, उस पर दृष्टिपात करें -
"भूरिशोऽपि मम संप्रसारिभिरौर्ववन्नृप समुद्रवारिभिः ।। किं वदानि वचनैः स भारत-भूपभून खलु शान्ततां गतः ॥'182
प्रकृत पद्य में यह वर्णन है कि जिस प्रकार बड़वानल समुद्र के विपुल जलसे शांत नहीं होता, उसी प्रकार मेरे द्वारा कहे गये अनेक प्रकार के सान्त्वनापूर्ण वचनों से भी वह शान्त नहीं हुआ । इस प्रकार यह दृष्टान्तालङ्कार अनुपमेय है ।