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________________ पंचम अध्याय / 107 कठिन हो गया । इस प्रकार दोनों में यद्यपि भेद वस्तुत: है परन्तु अभेद की कल्पना निर्निमेषत्व के द्वारा कवि ने किया है । एतावता भेद में अभेद मूलक अतिशयोक्ति अलङ्कार रूप है । इसी प्रकार अन्यान्य स्थलों में इस अलंकार का पर्याप्त रूप में प्रयोग है । 11. दीपक : जहाँ अप्रस्तुत और प्रस्तुत वस्तुओं का एक क्रिया के साथ सम्बन्ध वर्णित हो, वहाँ दीपकालङ्कार होता है' । अथवा एक का अनेक क्रियाओं के साथ सम्बन्ध वर्णित हो तो भी दीपक होता है। दीपक का अक्षरार्थ ही है, 'दीप इव दीपकम्' दीप की समानता होने से ही इसको दीपकालङ्कार कहते हैं । जिस प्रकार जलता हुआ दीपक (अपेक्षित भवन के छत पर प्रकाश करते हुए भी गलियों में भी प्रकाश कर देता है) उसी प्रकार यह दीपकालङ्कार है । अब दीपक अलङ्कार का एक मनोहर उदाहरण जयोदय महाकाव्य से अवतरित है - "या विभाति सहजेन हि विद्यातन्मयावयविनी निरवद्या । एतदीयचरितं खलु शिक्षा वा जगद्धितकरी सुसमीक्षा ॥2 प्रकृत उदाहरण में स्वयंवर वर्णन करने के लिये जो विद्या देवी उपस्थित हुई उसका वर्णन किया गया है जो स्वभावतः निरवद्या अर्थात् निर्दोष हैं एवं नाम के अनुसार उसमें विद्या के सारे अवयव विद्यमान थे । अतः नाम भी सार्थक है । उसका सम्पूर्ण जीवन वृत्त जगत् की शिक्षा के लिये रहा । अथवा उसकी सुन्दर समीक्षा जगत् की हितकारिणी थी । इस प्रकार वह विद्या देवी शोभित हुई । यहाँ एक का अनेक क्रिया के साथ सम्बन्ध वर्णित होने से दीपकालङ्कार समझना चाहिए । 12. निदर्शना : जहाँ दो वाक्यार्थ या दो पदार्थों का धर्म-धर्मी भाव से सम्भाव्य सम्बन्ध दिखाया गया हो, वहाँ निदर्शनालङ्कार होता है । अथवा कहीं असम्भाव्य वस्तुओं का दो वाक्यार्थ या दो पदार्थ का जहाँ बोध सम्भावित हो, बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव (सादृश्य) से व्यंजना वृत्ति से बोध किया जाता हो, वहाँ भी निदर्शनालङ्कार होता है । निदर्शना का अक्षरार्थ है कि “निदर्शयति निश्चयेन सादृश्यम् उपमानोपमेयभावं बोधयतीति निदर्शना नाम - अलङ्कारः।" 'नि' पूर्वक ण्यन्त 'दृश्' धातु से ‘ण्यासंचोज्युच्' सूत्र के द्वारा 'युच्' 'अन्' आदेश 'टाप' करके निष्पन्न होता है । यह सम्भवद् वस्तु सम्बन्ध एवं असम्भवद् वस्तु सम्बन्ध के भेद से दो प्रकार का होता है । असम्भवद् वस्तु सम्भवद् की कल्पना करके निम्न श्लोक दिखलाया गया है - "जयमुपैति सुभीरुमतल्लिकाऽखिलजनीजनमस्तकमल्लिका । बहुषु भूपवरेषु महीपते मणिरहो चरणे प्रतिबद्ध्यते ॥174 जयकुमार एवं सुलोचना के भावी सम्बन्ध के विषय में ऐसा द्वेषी वर्ग के द्वारा कहा गया है कि हे राजन् ! अनेक श्रेष्ठ राजाओं के रहने पर भी अखिल सुन्दरियों के मस्तक
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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