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________________ 106/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अ... . साथ अभेद बोध किया जाता है, वहाँ अतिशयोक्ति अलङ्कार होता है । इसके अतिरिक्त निगीर्ण होना विषय के अनुक्त होने से अथवा उक्त होने पर भी केवल तिरस्करण के द्वारा भी निगीर्ण माना जाता है एवं यह अलङ्कार भेद में अभेद बोध करने से अथवा अभेद में भेद बोध करने से अथवा कार्य-कारण भाव जो नियत रूप है कि कार्य के पहले कारण उपस्थित रहता है । परन्तु इसका वैपरित्य हो जाने से अर्थात् कारण के पहले कार्य की ही उत्पत्ति बतायी जाय अथवा कार्य कारण दोनों को एक काल में ही बतलाया जाय वहाँ भी अतिशयोक्ति अलङ्कार होता है । इसके अतिरिक्त सम्बन्ध में असम्बन्ध की और असम्बन्ध में सम्बन्ध की कल्पना करना भी अतिशयोक्ति अलङ्कार निष्पन्न करता है। यद्यपि इसके और भी भेद बताये जा सकते हैं परन्तु साहित्यदर्पणकार ने भेद में अभेद, अभेद में भेद, सम्बन्ध में असम्बन्ध, असम्बन्ध में सम्बन्ध की कल्पना करने से एवं कार्य कारण के पौर्वापर्य भाव के विपरीत होने से पाँच प्रकार का अतिशयोक्ति अलङ्कार माना है। जयोदय महाकाव्य के प्रथम सर्ग का नवम श्लोक इस अलङ्कार से ओतप्रोत है - "गुणैस्तु पुण्यैक पुनीतमुर्तेर्जगन्नगः संग्रथितः सुकीर्तेः । कन्दुत्वमिन्दुत्विडनन्यचौरैरुपैति राज्ञो हिमसारगौरैः ॥69 प्रकृत पद्य में जयकुमार की कीर्ति का वर्णन किया गया है । पूज्य से पवित्र है आकार जिसका ऐसे उस जयकुमार के चन्द्रकान्त को भी तिरस्कृत करने वाली कपूर के सदृश उज्ज्वल शौर्य आदि गुणों से निर्मित यह जगत्रूप पर्वत उस राजा की सुन्दर कीर्ति का गेंद बन गया। अर्थात् जैसे कोई स्त्री गेंद से क्रीडा करती है, वैसे ही जयकुमार की कीर्ति जगतरूप गेंद से क्रीडा करती रही । गेंद खेलने के लिये किसी आकारवान व्यक्ति की अपेक्षा होती है। कीर्ति का कोई आकार नहीं होता परन्तु जगत्रूप गेंद से क्रीडा करने का वर्णन किया गया है। यह सम्बन्ध सम्बन्धाभाव में सम्बन्ध की कल्पना करके दिखाया गया है अतएव अतिशयोक्ति अलङ्कार है। निम्नलिखित श्लोक भी इस अलङ्कार के लिए दर्शनीय है - "चित्तभित्तिषु समर्पितदृष्टौ तत्र शश्वदपि मानवसृष्टौ । निर्निमेषनयनेऽपि च देवव्यूह एव न विवेचनमेव ॥70 यहाँ अकम्पन की काशी नगरी के वर्णनावसर पर यह दिखाया गया है कि वहाँ सभा में चित्रों से युक्त दीवालों पर एकटक दृष्टि लगाने वाले मानव समूह एवं निर्निमेष नेत्र वाले देव समूह में यह देव है कि मनुष्य है, यह विवेक प्राप्त करना असम्भव सा हो गया । क्योंकि एकटक लगाने से मानव भी निर्निमेष प्रतीत हुए तथा स्वभावतः निर्निमेष देवगण के सम्बन्ध में कहना ही क्या है? वह निर्निमेषत्व देव-मानव दोनों में विद्यमान हो जाने से पृथक् करना
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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