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________________ पंचम अध्याय / 103 वे बोलने लगे । मेघ और विद्यत को देखकर मोरों का बोलना स्वाभाविक होता है। परन्तु यहाँ यथार्थतः उसके अभाव में भी धूलि से आच्छन्नता वश अन्धकार को मेघ एवं तलवार की चमक को विद्युत् समझने से अन्य में अन्य वस्तु का कवि प्रतिभोत्थापित भ्रान्ति होने से भ्रान्तिमान् अलङ्कार है। इसी प्रकार सहृदय जनों के आस्वादन के लिये इसका एक और उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है - " पुलिने चलनेन के वलं वलितग्रीवमुस्थितो बकः । मनसि वजतां मनस्विनामतनोच्छ् वेतसरोजसम्भ्रमम् ॥'57 सुलोचना के साथ जयकुमार के विदा हो जाने पर मार्ग में गंगा नदी पड़ी । उसी के तट पर ऐसा वर्णन किया गया है कि एक बगुला एक पैर से खड़ा होकर अपनी ग्रीवा को तिरछा कर दिया है, जिससे चलते हुए मनस्वियों के हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि यह श्वेत कमल है । यहाँ पर बगुले में श्वेत कमल का ज्ञान होना कवि प्रतिभोत्थापित ज्ञान है। अतः भ्रान्तिमान् अलङ्कार यहाँ भी है। 7. उल्लेख : उल्लेखालङ्कार से भी यह महाकाव्य रिक्त नहीं है। इसका लक्षण आचार्य विश्वनाथ ने किया है कि जहाँ ज्ञाता और विषय के भेद से एक ही वस्तु का अनेक प्रकार से कथन किया जाय वहाँ उल्लेख अलङ्कार होता है । इसके उदाहरण के रूप में जयोदय महाकाव्य का निम्न श्लोक उपस्थापित किया जा सकता है - " प्रातरादिपदपद्मयोर्गतः श्रीप्रजाकृतिनिरीक्षणे न्वतः । नक्तमात्मवनिताक्षणे रतः सर्वदैव सुखिनां स सम्मतः ॥''59 यहाँ जयकुमार के सम्बन्ध में कहा गया है कि वे प्रातःकाल आदि जिनेश्वर ऋषभ देव के चरणों की सेवा में लगे रहते थे । ततः (दिन में) प्रजा के कार्यों के निरीक्षण में तत्पर रहते थे एवं रात्रि में अपनी स्त्रियों के साथ (विलासादि) उत्सव में अनुरक्त रहते थे। इस प्रकार वह सदा ही सुखियों के मण्डल में श्रेष्ठ थे। एक ही जयकुमार के सम्बन्ध में नाना कार्यों का वर्णन होने से यहाँ उल्लेखालङ्कार है । इसी प्रकार सप्तमसर्ग में भी उल्लेखालङ्कार दर्शनीय है - "स्वर्णदीपयसि पङ्ककू पतश्चचन्द्रमस्यपि कलङ्करुपतः । गीयते मद इतीन्द्रसद् गजमस्तके जयबलोद्धतं रजः ॥60 जिसका तात्पर्य यह है कि जयकुमार की सेना के विचरण से उठी हुई धुलि आकाश गंगा में पहुँचकर कीचड़ बन गयी एवं चन्द्रमा में काले कलङ्क के रूप में हो गयी तथा इन्द्र के हाथी के मस्तक पर मद जल को धारण कर ली ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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