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पंचम अध्याय / 101
उसे रूपकालङ्कार कहते हैं । वह रूपक भी परम्परित, सांग निरंग के भेद से तीन प्रकार का होता है" । रूपकालङ्कार के लिये कतिपय उदाहरण दर्शनीय हैं -
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भुजगोsस्य च करवीरो द्विषदसुपवनं निपीय पीनतया । दिशि दिशि मुंचति सुयशः कंचुकमिति हे सुकेशि रयात् ॥ 50
प्रकृत पद्य में विद्या देवी सुलोचना को सम्बोधित कर जयकुमार का परिचय देती हुई कहती है कि हे सुन्दर केशों वाली सुलोचने। इसके हाथ का खड्गरूप सर्प शत्रुओं के प्राणरूपी पवन को पीकर पुष्ट होने से प्रत्येक दिशा में यशरूपी केंचुल को बड़े वेग से छोड़ रहा है । यह परम्परित रूपक का उदाहरण है । कार्य कारण भाव से आरोप जहाँ होता है, उसे परम्परित रूपक कहते हैं ।
यहाँ पर राजा के हाथ पर सर्प का आरोप करने में शत्रु के प्राण पर पवन आरोप में कारण है । इसी प्रकार 'यश' पर केंचुल आरोप भी रम्य बना है ।
रूपकालङ्कार से कोई सर्ग वंचित नहीं है । शरीर से निकलने वाली रक्त की धारा सन्ध्या की शोभा का सार सर्वस्व प्राप्त कर लिया है, जिसकी रम्यता आस्वादनीय है" रविं च विच्छाद्य रजोऽन्धकारो नभस्यभूत् प्राप्ततमाधिकारः । युद्धयत्प्रवीरक्षतजप्रचारः सायं श्रियस्तत्र बभूव सारः ॥ '
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यहाँ यह वर्णन है कि युद्ध भूमि में उठी धूल सूर्य को भी आच्छादित कर लिया । यह सम्पूर्ण गगन मण्डल पर भी छा गयी । इस स्थिति में युद्ध कर रहे वीरों के शरीर से प्रवाहित रक्त की धारा सन्ध्या की शोभा का तत्त्व सर्वस्व प्राप्त कर लिया ।
पुन: एक मनोरम कल्पना प्रस्तुत है -
"रणश्रियः केलिसरः सवर्णाः करीशकर्णात्ततया सपर्णा । वक्त्रैर्भटानां कमलावकीर्णा श्रीकुन्तलै शैवलसावतीर्णा ॥" अजस्रमाजिस्त्वसृजा प्रपूर्णा किलोल्लसत्कुङ्कुमवारिपूर्णा । यशः समारब्धपरागचूर्णा स्मराजते सा समुदङ्गघूर्णा ॥"
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प्रकृत पद्य में युद्धभूमि रण श्री के क्रीडा सरोवर सी बन गयी थी, क्योंकि युद्ध में कटे हुए हाथियों के कान पत्ते जैसे प्रतीत होते थे । योद्धाओं के मुखों सरीखे कमलों से वह पूर्ण थी । इधर-उधर छितराये हुए केश सेवार का काम कर रहे थे । युद्धभूमि में भरा हुआ रक्त केशर के जल के समान तथा वीरों का फैला हुआ यश पराग सदृश था । इस प्रकार इन सब उपकरणों से पूर्ण वह युद्ध - भूमि प्रसन्नता से इठलाती बावड़ी लग रही थी । ऐसे ही रूपकालङ्कार से कोई सर्ग वंचित नहीं दिखता है ।