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चतुर्थ अध्याय /89 अर्थात् कभी वृद्धावस्था में पहुंचने पर भी क्या जिन नाम को कभी स्मरण किया ? हे शान्ते ! (शान्तिमयी प्रिया के लिये सम्बोधन दिया गया है) अब आकुलता से क्या लाभ? इसे समय जो कुछ अपनी निधि संचित की हो उसे स्मरण करो । आगे के श्लोकों में यथा
"रट झटिति मनो जिननाम, गतमायुर्नु दुर्गुणग्राम । स्थायी आशापाशविलासतो द्रुतमधिकर्तुं धनधाम । निद्रापि क्षुद्रा भवद्भुवि नक्तं दिवमविराम ॥''91 गतमायु ॥
अर्थात् हे मन ! तू शीघ्र ही जिन नाम को जप, दुर्गुण समूह में ही सम्पूर्ण आयु व्यतीत हो गयी, बड़े खेद की बात है । आशारूपी बन्धन में फँसकर धन-धाम के लिये निरन्तर . दौड़ता रहा । इस भू-तल में दिन-रात निरन्तर तुच्छ निद्रा भी आती ही रही । अज्ञान और
आलस्य में ही निरन्तर दिन-रात व्यतीत हो गया । - इसी प्रकार जयोदय महाकाव्य 23/64, 65, 66, 67, 68, 69 श्लोकों में कहा गया है । आगे के श्लोकों में भी -
"हे नर निजशुद्धिमेव विद्धि सिद्धिहे तुम् ।192
अर्थात् हे मानव ! अपने अन्त:करण की निर्मलता को ही अपनी सफलता का कारण समझ । यह स्थायी टेक भी शान्त रस की ओर ही प्रवाह उत्पन्न करता है ।
इस प्रकार स्थायी टेक के द्वारा इस सर्ग की समाप्ति दिखायी गयी है । ___ चौबीसवें सर्ग में सुन्दरी सुलोचना के साथ सावधान एवं न्यायशील तथा निष्पाप जयकुमार वांछित फल को देने वाले जिनेश्वर मन्दिर में प्रवेश करते हैं । जिसका मनोरम चित्रण प्रस्तुत
है -
"कलं वनेऽसावविलम्बनेन तगिरेबलं देवलमाप पापहृत् । धृतावधानः सुनिधानवबुधः सदायकं वाञ्छितदायकं तदा ॥ जयः प्रचक्राम जिनेश्वरालयं नयप्रधानः सुदशा समन्वितः । महाप्रभावच्छविरुन्नतावधिं यथा सुमेरुं प्रभयान्वितो रविः ॥' 193
आगे के सर्ग में वर्णित है कि - सारे वैभव स्वप्न सदृश हैं । दृश्य पदार्थ नश्वर हैं। नेत्र के बन्द होने पर मृगाक्षी युवतियाँ मस्त हाथी आदि साधक नहीं बनते । यथा -
"युवतयो मृगमञ्जुललोचनाः कृतरवाद्विरदामदरोचनाः । लहरिवत्तरलास्तुरगाश्चमू समुदये किमु दृक् झपनेऽप्यमूः॥4 यह वर्णन भी शान्त को ही पुष्ट करता है । . छब्बीसहवें सर्ग में समदर्शी प्राणिमात्र के रक्षक जयकुमार को अनन्तवीर्य पुत्र उत्पन्न