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88 /जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
"अतिवर्त्य नदीवनादिकं पुरमात्मीयमवापि सेनया । नरपस्य यथा यतिस्थितिर्लभते संसृतितश्शिवं रयात् ॥'185
पदाति सेना, अश्व, गज, रथ, सैन्य अनेक नदी वनादि को पारकर अपने नगर को पाकर उसी प्रकार शान्ति को प्राप्त किये जिस प्रकार यति संसार समुद्र को पारकर कल्याण को पाकर परम शान्ति का अनुभव करता है । औपम्यमुखेन यहाँ शान्ति है ।
तेइसवें सर्ग में वैराग्योत्पादक गीत गान दिखाया गया है जो बड़े ही मनोहर ढंग में
है -
"तव मम तव मम लपननियुक्त्याखिलमायुर्विगतम् ।। हे मन आत्महितं न कृतं ॥ हा हे मन. ॥186 स्थायी टेक है
यहाँ यह तुम्हारा है । यह हमारा है । इस प्रकार कथन में तत्पर हुए हे चित्त तुमने सम्पूर्ण आयु व्यतीत कर दिया । परन्तु हे मन ! तुमने अपने शाश्वत हित के लिये कुछ भी नहीं किया ।
इसी प्रकार आगे भी कहा है - "नव मासा वासाय वसभिर्मातृशकृतिसहितम् । शैशवमपि शवलं किल खेलैः कृतोचितानुचितम् । हे मनः ॥187
अर्थात् मांस, विष्ठा, मल आदि से भरे हुए माता की कुक्षि में चर्बी सहित नव मास तक तुमने निवास किया । क्रीडा के साधनों के साथ बाल्यावस्था को खिलवाड़ से ही खो दिया । उचित अनुचित का विचार नहीं किया। हे मन ! तुमने अपने शाश्वत हित के लिये कुछ भी नहीं किया । आगे भी यथा -
"तारुण्ये कारुण्येन . विनौद्धत्यमिहाचरितम् । मदमत्तस्य तवाहर्निशमपि चित्तं युवतिरतम् ॥''88 हे मन. ॥
अर्थात् युवावस्था में निर्दयता के साथ तुमने आचरण किया । मद से मस्त होकर दिनरात यह तुम्हारा अन्तःकरण युवतियों में आसक्त रहा। हे मन ! तुमने अपने शाश्वत हित के लिये कुछ भी नहीं किया ।
"प्रौढिं गतस्य · परिजनपुष्ट चै शश्वत्कर्ममितम् । एकैकया कपर्दिकया खलु वित्तं बहुनिचितम् ॥18 हे मन. ॥
अर्थात् प्रौढ़ावस्था में परिवार के पोषण के लिये निरन्तर उद्योग में तत्पर होकर एकएक कौड़ी के द्वारा अधिक धन संचय किया परन्तु हे मन ! तुमने अपने शाश्वत हित के लिये कुछ भी नहीं किया । पुनः आगे
"स्मतमपि किं जिननाम कदाचिद्वार्द्धक्येऽपि गतम् । विकलतया हे शान्ते सम्प्रति संस्मर निजनिचितम् ॥''90 हे मनः ॥