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चतुर्थ अध्याय /87 यहाँ अनादिरूपा सुलोचना और अनन्तरूप जयकुमार इन दोनों को अनादि-अनन्त रूपा स्मृति किया है । ऐसा मार्ग संस्तवन के योग्य होता है । यह कथन अनादि-अनन्त शाश्वत भावी सुख की ओर संकेत करता है क्योंकि उत्पत्ति और विनाश में शाश्वत सुख की सम्भावना ही हो सकती।
__ अष्टादश सर्ग में प्रात:काल सूतगण जब जयकुमार के यहाँ गुणगान हेतु उपस्थित होकर अपना कृत्य आरम्भ करते हैं उस समय यह कहा गया है कि हे राजन् ! कुमुद समूह के दल नीचे की ओर झुक रहे हैं एवं कमल समूह ऊपर की ओर उठ रहे हैं । दोनों स्थानों का अधिकारी भ्रमर पूर्ण भार को न देकर परिणामतः तुल्यता का ही अनुभव कर रहा है। यथा -
"श्री कैरवेषु च दलैर्विनमद्भिरेवमभ्युन्नमद्भिरिव वारिरुहेषु देव ।। तं सन्दधत्सुपरिणाममपूर्णमारन्तुल्यत्वमञ्चति मिलिन्द इहाधिकारात् ॥'180 यहाँ भ्रमर के प्रति अन्योक्ति समानता का अनुभव शान्ति की ओर उन्मुख कर रहा
__इसी प्रकार उन्नीसवें सर्ग में दैनिक कृत्य के पश्चात् जयकुमार भगवान् जिन की स्तुति में प्रवृत्त होते हैं । यह स्तुति ही मनोनिग्रह का परम साधन है । मनोनिग्रह शान्त का प्रथम शस्त्र है । उदाहरणार्थ श्लोक प्रस्तुत है
"हे नाथ रत्नं तृणमामनन्तः जनीमिदानीं जननीं तु सन्तः । स्वस्यानभिप्रेतमना चरन्तः परेष्वपि स्वात्मनि सन्तुषन्तः ॥81
अर्थात् हे नाथ ! रत्नों को तृणसमान समझता हुआ स्त्री को माता सदृश मानता हुआ स्वयं निःस्पृह हो अन्य में भी आत्मबुद्धि का अनुभव कब करूँगा ?
यह वाक्य जयकुमार के भावी वैराग्य का सूचक है - "ग्रीष्मे स्वभावी जन एव यस्य शीते सदा कम्बलमभ्युदस्य । जडप्रसङ्गेऽप्यजडस्थलस्यासको तवानन्यतमा तपस्या ॥182 इसी प्रकार शान्त रस के परिपाक की पुष्टि सर्वत्र विद्यमान है - "नभोभिधैक तां कृत्वा धृत्वा स्ववीचिबाहुभिः ।। याति स्मालिङ्गितं यद्वा प्रजवादम्वु अम्बरम् ॥183
यहाँ चक्रवर्ती महाराज भरत के समीप जयकुमार के पहुंचने का वर्णन है । वहाँ से लौटते समय गंगा को पार करने के समय एक घातक जन्तु मकर रूपधारी देव जयकुमार को व्याकुल बना देता है । उस समय इन विघ्नबाधाओं एवं उपद्रवों को शान्त करने के लिये दूर में स्थित भी सुलोचना नमो मन्त्र का जप एवं चिन्तन करती है । मन्त्र-जप-चिन्तन शान्त मार्क के अभ्यास का सोपान है । इसी प्रकार -