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90/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन होता है। इस प्रकरण में यमकालंकार का साम्राज्य दिखाया गया है। यह सब होते हुए भी स्याद्वाद विश्व का जीवन एवं आत्ममीत है। आदि तीर्थ की वन्दना से अभेद भेदात्मक अर्हन् मत का प्रतिपादन किया गया है -
'हे देव दोषावरणप्रहीण त्वामाश्रयेद्भक्तिवशः प्रवीणः । नमामि तत्त्वाधिगमार्थमारान्न मामितः पश्यतु मारधारा ॥ भवन्ति भो रागरुषामधीना दीना जना ये विषयेषु लीनाः । त्वां वीतरागं च वृथा लपन्ति चौरा यथा चन्द्रमसं शपन्ति ॥ विरागमेकान्ततया प्रतीमः सिद्धौः रतः किन्तु भवान् सुषीम । विश्वस्य सञ्जीवनमात्मनीनं स्याद्वादमुज्झेत्किमहो अहीन ॥ अहो यदेवास्ति तदेव नास्ति त्वाद्भुतेयं प्रतिभाति शास्तिः । यद्वा स्मरामोऽत्र तमीनरेभ्यः निशापि सा नास्ति निशाचरेभ्यः ॥95
सत्ताइसवें सर्ग में जयकुमार ऋषभदेव भगवान् के पास उनसे दीक्षा देने हेतु याचना करते हैं । भगवान् ऋषभदेव द्वारा उन्हें अष्टाविंशति गुणों का उपदेश प्राप्त होता है । अज्ञानान्धकार को दूर करने वाले सभा के भूषण लोक प्रधान देव भगवान् ऋषभ ने जयकुमार पर सत्य विभाव के लिये कृपा की । यथा - - "सत्कर्तव्यपथोपदेशनपरो लक्ष्योऽप्यवर्गश्रियः ।
इसी प्रकार महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में यह कहा गया है कि जयकुमार ने वैषयिक वृत्ति को परिवर्तित कर गुरु की कृपा से भव्य जीवन को प्राप्त किया -
"सदारुणोदितां वृत्तिं परिवर्त्य सतां पतिः । गुरोरनुग्रह प्राप्त्या
समवापाच्छ तामथ ॥१॥ इसी प्रकार आगे के श्लोकों में भी उल्लेख है - राजपर्या का परित्याग कर हृदय कमल को विकसित करने के लिये अर्हन् देव के पास पहुँचकर उन्होंने तपश्चर्या को ही अपना धन बना लिया । यथा -
"राजतत्त्वपरित्यागात्समिनोदितवर्णता पश्यतो हरतो जाताथानिद्रात्नोः स्वशर्मणि ॥ स्फोटयितुं तु कमलं कौमुदं नान्वमन्यतः । सानुग्रह तयार्हन्तमुपेत्यासीत्तपोधनः
॥98. इसी प्रकार आगे के मनोरम उद्धरणों पर दृष्टिपात करें - "हेरयैवेरयाव्याप्त भोगिनामधिनायकः । अहीनः सर्पवत्तावत्कञ्चुकं परिमुक्त वान् ॥११ अर्थात् तपस्वी बनकर समदृष्टि रखते हुए इन्द्रिय विग्रह करने वाले सर्प के केचूल