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________________ 84/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन यहाँ भी शान्तप्रद सुख की ओर संकेत है । एवं आश्रमात् आश्रमं गच्छेत्' इस उक्ति की पुष्टि है । बिना गृहस्थ जीवन के पालन के विरक्त मार्ग को अपनाने वाले कहीं उन्मार्गगामी भी बन सकते हैं क्योंकि तेज पंज के बिना भान नहीं होता है । संसार व्यवहार ही नय (नीति) है । वही व्यवहार निश्चय से युक्त होने पर आर्षरीति कहलाती है । दोनों के परस्परेक्षण से सुपरिणाम उपस्थित होता है जिसका मनोरम चित्रण देखिये "लोकरीतिरितिनीतिरङ्किताऽऽर्षप्रणीतिरथ निर्णयाञ्चिता । एतयोः खलु परस्परेक्षणं सम्भवेत् सुपरिणामलक्षणम् ॥66 यह उक्ति शान्त रम्य के दिव्य आनन्द की ओर संकेत करती है। गृहस्थ पशुवत् आसन, व्यसन, बन्धन में पड़ता है । गृह भी भोग साधन है । गृहस्थ ही त्रिवर्ग (धर्मार्थकाम) का संग्राहक होता है । यह इसी सर्ग के इक्कीसवें श्लोक पर्यन्त कहकर अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष की प्रशंसा बाइसवें श्लोक तक की गयी है । जो दर्शनीय है "कर्मनिर्हरणकारणोद्यमः पौरुषोऽर्थ इति कथ्यतेऽन्तिमः । . सत्सु तत्स्वकृतमात्रसातनः श्रावकेषु खलु पापहापनम् ॥67 .. अर्थात् सकल कर्म क्षय हेतु तपस्वियों द्वारा विहित कर्ममात्र का नाशक गृहस्थों में पाप का नाशक अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष ही बनता है । इसी प्रकार अन्य स्थलों में कहा है - "श्रीजिनं तु मनसा सदोन्नयेतं च पर्वणि विशेषतोऽर्चयेत् । गेहिने हि जगतोऽनपायिनी भक्तिरेव खलु मुक्तिदायिनी ॥"68 यहाँ भक्ति ही मुक्ति की दायिनी है, यह संकेत किया गया है। इसी प्रकार अनेक स्थलों में एवं प्रत्येक सर्ग में शान्त रस का अनुपम प्रयोग दर्शनीय है । तीसरे सर्ग में उपर्युक्त 'आश्रमात् आश्रमं गच्छेत् ' की प्राचीन उक्ति को सफल बनाने की दृष्टि से अग्रिम कथानक का उत्थान किया गया है । काशी नरेश द्वारा जय के स्वागत में कही गयी उक्ति शान्त की प्रमुखता को व्यक्त कर रही है - "त्वदपरो जलबिन्दुरहं जनो जलनिधे मिलनाय पुनर्मनः । यदगमं भवतो भुवि भिन्नतां तदुपयामि सदैव हि खिन्नताम् ॥ तव ममापि समस्ति समानता स्वमुदधिर्मयि बिन्दुकताऽऽगता । पुनरपीह सदा सदृशा दशा भवति शक्तिरहो मयि किंन सा ॥16n यहाँ विनम्रता का दर्शन है । परिणाम में वह शान्त को ही पुष्ट करता है । नवम सर्ग का चतुर्दश श्लोक भी शान्त रस को पुष्ट करता है ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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