SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय /85 "त्वमथ जीवनमप्यनुजीविनामिह कुतस्त्वदनुग्रहणं विना । मम समस्तु महीवलयेऽमृत शफरता पृथुरोमकताभृतः ॥7° आगे भी शान्त रस का हृदयग्राही सन्निवेश महाकवि ने किया है जो द्रष्टव्य है - "समयात् स महायशाः स्थितिं करसंयोजनकालिकीमिति । उपयुज्य पुनर्नृपासनं मुनिरन्तःपुरतो यथा वनम् ॥1 इसमें अन्त:पुर से सिंहासन पर महाराज अकम्पन पहुंचे यह दिखाया गया है । जिनके लिये मुनि की उपमा दी गयी है । मुनि मननशील एवं विचार दक्ष होते हैं । अकम्पन के लिये यह प्रयोग दृढ़ता एवं निश्चल अन्त:करण का परिचायक है जो जयकुमार के साथ सम्बन्ध जोड़कर भावी शान्त का संकेत है । ___द्वादश सर्ग में सुलोचना के शब्दों में कहा गया है कि हमारे मूल पुरुषों ने (महापुरुषों ने) त्रिवर्ग (धर्मार्थकाम) को मोक्ष पुरुषार्थ के प्रति शक्ति प्राप्त करने के लिये उपयोगी बताया है । मैं तो इस विषय में गौरी अर्थात् बाल स्वभाव वाली हूँ किन्तु जय शब्द का ही मुकुट धारण करने वाले भगवान् जिन मंगल कारक हों । यह धर्मार्थकाम भी मोक्ष रुप पुरुषार्थ का पूरक है । सांसारिक बन्धनों से दूर होने से ही शान्ति है । परन्तु एकाएक किसी मार्ग को दृढ़ बनाना सम्भव नहीं है । इसलिये शान्ति के साधक धर्मार्थकाम भी हैं इस ओर सुलोचना की यह उक्ति संकेत करती है - "कलशः कलशर्मवागनून दलसङ्कल्पलसत्फलप्रसूनः । वसुधामसुधावशात्समुद्रः शिवताति कुरुतात्तरामरुद्रः ॥172 इसी प्रकार अन्यत्र भी शान्त की पुष्टि होती है । "मम शान्ति-विवृद्धचं हसां तु प्रलयः सत्कृतशेमुषीति भान्तु । हृदये सदये समस्तु जैनमथवा शासनमर्ह तां स्तवेन ॥ उचितामिति कामनां प्रपन्नौ खलु तौ सम्प्रति जम्पती प्रसन्नौ । . कुसुमाञ्जलिमादरेण ताभ्यः सुतरामर्पयतः स्म देवताभ्यः ॥" यहाँ पर दोनों दम्पतियों के विषय में कहा गया है । उन्हीं के वाक्य हैं कि जिन भगवान् की स्तुति से हम दोनों में उत्तरोत्तर शान्ति की वृद्धि हो । पापों का नाश हो । पुण्यमयी बुद्धि का प्रकाश हो । दया परिपूर्ण अन्त:करण में जैन धर्म स्थित हो । इस प्रकार की समुचित कामनाओं से अर्हन्त आदि पंच परमेष्टि देवताओं के कारणों में दम्पति ने पुष्पांजलि समर्पण की। करुण दया, शान्ति का अङ्ग है । वैर भाव का परित्याग प्राणिमात्र पर दया की भावना से शान्ति प्राप्त होती देखी गयी है । उत्तम भावनाओं को महत्व देने वाले जयकुमार नगर भूमि को छोड़कर वनभूमि में जब पहुँचे, तो सारथी ने यह कहना शुरू किया -
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy