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________________ ॥ 3 चतुर्थ अध्याय / 83 "कलशोत्पत्तितादात्म्य मितोऽहं तव दर्शनात् । 'आगस्त्यक्तोऽस्मि संसारसागर श्चुलुकायते ॥"62 पुनश्च जयकुमार ऋषिराज से कहते हैं कि आप के परम पवित्र चरण धुलियों से यह मेरा मनोमन्दिर (मनः कुटीर) मनोरम हो रहा है । यह कथन अन्तःकरण की निर्मलता का अर्थात् रजस एवं तमोगुण को अभिहतकर सत्त्वगुण के उद्रेक का परिचायक है । ऐसे ही आगे भी कहा गया है कि आपके चरणों का सम्पर्क पाकर यह जीवलोक निर्मल हो रहा है । मुनिराज से जयकुमार ने यह प्रार्थना की कि काम को नष्ट करने वाले महादानदाता, सत्यधर्मपरिपालक, जितेन्द्रिय क्षमाधारण करने वाले मुनिराज मुझे सन्मार्ग का उपदेश करें, जिससे सदा उदय बना रहे । इस कथन को कवि के शब्दों में बड़े ही सुन्दर रूपों में प्रस्तुत किया गया है। यथा"क्षतकाम महादान नय दासं सदायकम् । सत्यधर्ममयाऽवाममक्षमाक्ष क्षमाक्षक इस प्रकार "आश्रमात् आश्रमं गच्छेत्" एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाना चाहिए। इस सिद्धान्त पर इस महाकाव्य में सर्वाधिक बल दिया गया है । पुनश्च जयकुमार ने कहा कि हे पवित्र मुनिराज ! दुःखपूर्ण ग्रह में रहने वाले हम गृहस्थों के लिये निर्दोष कर्तव्य कौन से हैं और कौन-कौन से नहीं हैं । हे प्रशस्तचेष्टावाले ऋषिराज ! इस परिग्रहरूप घर में किसको शान्ति प्राप्त हुई है ? अर्थात् किसी को भी शान्ति नहीं मिली है। तथापि आपके चरणों के निकट रहने वाले व्यक्ति को विवेक प्राप्त हो ही जाता है यह मुझे अनुभव हो रहा है । गृहस्थ जीवन अपनाने पर शान्ति घर में नहीं मिलती इसलिए उसकी प्राप्ति हेतु ऋषिराज से अपना हार्दिक भाव जयकुमार ने व्यक्त किया है जो हृदयहारिणी पदावलियों में अंकित है - "ग्रन्थारम्भमये गेहे कं लोकं हे महे ङ्गित । . शान्तिर्याति तथाप्येनं विवेकस्य कलाऽतति ॥"64 द्वितीय सर्ग में जगत् के हितकर्ता जिन भगवान् को प्रणामकर मुनिराज गृहस्थों के हित हेतु उनके कल्याण प्रद कर्तव्य शास्त्र का उपदेश करते हैं । योग क्षेम हेतु अधिक बल देते हैं कि प्राप्त वस्तु की व्यवस्था और प्राप्तव्य के लिये उद्योगशील होने के लिये महात्माओं की श्रद्धा होती है। महात्मा लोग यद्यपि निश्चयात्मक वस्तु को ही हितकारक मानते हैं एवं व्यावहारिक नय को अहित कारक समझते हैं । तथापि व्यावहारिक नय पूर्वक ही निश्चयात्मक ज्ञान होता है । यथा "आत्मने हितमुशन्ति निश्चयं व्यावहारिकमुताहितं नयम् । विद्धि तं पुनरदः पुरस्सरं धान्यमस्ति न विना तृणोत्करम् ॥65
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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