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80 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
इसी प्रकार अन्य स्थलों में भी मनोरम रूप मिलता है - उस युद्ध भूमि में मांस खाने की इच्छा किया हुआ पक्षियों का समूह उस समय आ पहुँचा। शवों पर बैठे वे ऐसे हुए प्रतीत होते थे मानो फूत्कार करके उनके प्राण ही निकल रहे हों । इन भाव का निदर्शन महाकवि के शब्दों में देखने योग्य है
'पित्सत्सपक्षाः पिशिताशनायायान्तस्तदानीं समरोर्वरायाम् । चराश्च फुत्कारपराः शवानां प्राणा इवाभुः परितः प्रतानाः || ''55 यहाँ शव दर्शन आलम्बन विभाव है उन पर पक्षियों का मँडराना या बैठना उद्दीपन विभाव है तथा मांस भक्षण उन्हें देखकर आँखे बन्द करना, दूर हटना आदि अनुभाव है हुआ है मोह व्यभिचारी भाव है एवं जुगुप्सा स्थायी भाव होने से बीभत्स रस निष्पन्न अद्भुत रस
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तेइसवें सर्ग में जयकुमार - सुलोचना के पूर्व जन्म का स्मरण अवधिज्ञान मुर्च्छित होना आदि का वर्णन किया गया है। पूर्व जन्म की विद्या भी इन्हें प्राप्त हो जाती है । तदनन्तर प्रेममयी वार्ता का विस्तृत वर्णन इस सर्ग में दिखाया गया है । पूर्व जन्म स्मृति एवं कथांश का स्मरण अद्भुत रस का परिचायक है।
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जिस समय जयकुमार सुलोचना के साथ अपने प्रासाद पर चढ़कर वार्तालाप कर रहे थे उसी समय दम्पति ने आकाश मार्गगामी देव विमान को देखा । देखते ही पूर्वजन्म का स्मरण करते हुए इन दोनों को अवधि ज्ञान भी होता है तथा मुर्च्छित हो जाते हैं । प्रभावती ऐसा उच्चारण कर अपूर्व का भी अनुभव करते हैं जो महाकवि के शब्दों में है प्रस्तुत "नभःसदां शर्मकरश्चरन्नरं विहायसा व्योमरथोवलोकितः । प्रभावतीत्युक्तवचा विचक्षणो मुमूर्च्छ जातिस्मरणं जयो व्रजन् ॥ जयोऽथ जातिस्मृतिमेव तां प्रियामलब्धपूर्वामिव सुन्दरीं श्रिया । किमेषु रन्तुं परदाभिदां ह्रिया बभार मूर्च्छामपि चावृतिक्रियाम् ॥5
यहाँ पर देव विमान का दर्शन एवं प्रभावती रूप में ज्ञान होना आलम्बन विभाव है पूर्व जन्म स्मरण उद्दीपन विभाव है। मुर्च्छित होना अनुभाव है । चिन्ता आदि इच्छाएँ व्यभिचारी भाव है । विष्मय स्थायी भाव है । इस प्रकार अद्भुत रस की निष्पत्ति रम्य है ।
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शान्त रस
जयोदय महाकाव्य में आद्योपान्त सारतत्त्व रूप में शान्त रस का ही परिपाक है अस्तु, शान्त रस का मैं यहाँ प्रधान रस के रूप में विस्तृत विवरण देना अभीष्ट समझता हूँ ।
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