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चतुर्थ अध्याय / 79 शृङ्गाग्रलग्नाम्बुधरस्य शोभां गिरेर्दधानः खलु तेन सोऽभात् ॥'51
इसी प्रकार वीर रस की अनुपम छटा अन्य स्थलों में भी रम्य है जिसका अधोलिखित उदाहरण अवलोकनीय है -
"समुत्स्फुरद्विक्र मयोरखण्डवृत्त्या तदाश्चर्यकरः प्रचण्डः । रणोऽनणीयाननयो रभावै सदीव्यशस्त्रप्रतिशस्त्रभावैः ॥52
अर्थात् जयकुमार की ओर से विद्याधर मेघप्रभ (विद्याधर) एवं अर्ककीर्ति के पक्ष से सुनमि जो दोनों युद्ध के लिये उद्यत हुये दिव्य शस्त्र और प्रतिदिव्यशस्त्रों के द्वारा महान् आश्चर्योत्पादक प्रचण्ड युद्ध हुआ ।
यहाँ पर जयकुमार एवं अर्ककीर्ति का आदेश आलम्बन विभाव है, एवं युद्ध में पहुंचना एक दूसरे को देखना उद्दीपन विभाव है । अखण्ड वृत्ति से युद्धार्थ प्रवृत्त होना अनुभाव है। पारस्परिक शौर्यपूर्ण क्रोध व्यभिचारी भाव है तथा उत्साह स्थायीभाव होने से वीर रस की मनोरम झाँकी निष्पन्न होती है । भयानक रस -
अकम्पन यह समाचार सुनकर हृदय से काँप उठा और उसने सभा में मन्त्रियों के समदाय को बुलाया । कारण झगड़े की बात सुनकर उसके मन में व्यथा पैदा हो गयी । ठीक ही है, क्या कभी कोई पथिक उचित मार्ग से हट सकता है । इस आशय का वर्णन महाकवि ने अनुरेखित रूप में किया है -
"प्राप्य कम्पनमकम्पनो हृदि मन्त्रिणां गणमवाप संसदि ।
विग्रहग्रहसमुत्थितव्यथः पान्थ उच्चलति किं कदा पथः ॥53 बीभत्स रस -
जयोदय महाकाव्य में बीभत्स रस का प्रयोग महाकवि की प्रतिभा का परिचायक है। यथा -
"अप्राणकैः प्राणभृतां प्रतीकैरमानि चाजिः प्रतता सतीकैः । अभीष्टसंभारवती विशालाऽसौ विश्वस्त्रष्टुः खलु शिल्पशाला ॥54 .
अर्थात् रणभूमि में हताहत जिनके प्राण निकल गये हैं ऐसे योद्धाओं के हाथ चरण सिर से भरी हुई वह युद्ध-भूमि प्राणियों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली ऐसी प्रतीत होती थी कि जगत् निर्माता विधाता की शिल्पशाला है ।
यहाँ पर कटे हुए हाथ, पैर, सिर आदि आलम्बन विभाव हैं । इसका दर्शन उद्दीपन विभाव है । इसे देखकर दूर हटना अनुभाव है । स्मृति शून्यता मोह व्यभिचारी भाव है एवं जुगुप्सा (घृणा) स्थायी भाव होने से बीभत्स रस निष्पन्न होता है ।