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चतुर्थ अध्याय / 81
जयोदय महाकाव्य में प्रधान रस
• वाणीभूषण ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री प्रणीत 'जयोदय महाकाव्य' में किस रस का परिपाक
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दूर कर प्रेम सूत्र को जोड़कर द्वेष भाव को दूर किया । इसकी सूचना सम्राट् भरत के
है । कौन अङ्गी और अङ्ग हैं, इसका विवेचन कठिन सा दीखता है आरम्भ में जयकुमार को मुनिराज का दर्शन मिलता है। मध्य में काशी नरेश अकम्पन की सुन्दरी पुत्री सुलोचना के साथ पाणिग्रहण संस्कार का वर्णन । उसी काल में ही चक्रवर्ती सम्राट् भरत के पुत्र अर्ककीर्ति के साथ विग्रह एवं युद्ध क्षेत्र में उतरने का वर्णन भी है । चिरकाल यह विद्वेषाग्नि बैठी न रह जाय इस हेतु काशी नरेश अकम्पन ने अपनी द्वितीय पुत्री अक्षमाला के साथ अर्ककीर्ति का तत्काल मण्डप में ही विवाह संस्कार सम्पन किया एवं दोनों दामादों की पारस्परिक शत्रुता को पास दूत द्वारा भेजी जाती है । विवाहमहोत्सवानन्तर घर के लिये प्रस्थान का वर्णन तदनन्तर भवन में पहुँचने पर गार्हस्थ्य जीवन का अनुपम सुख, पुत्र प्राप्ति, समयानुसार पुत्र का राज्याभिषेक, राज्य भार पुत्र को सौंप कर जिनेन्द्र भगवान् की उपासना में तत्परता एवं मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति हेतु उपकरणों का वर्णन किया गया है, जिससे पर्यवसान में शान्त रस की ओर ही उन्मुखता दिखायी देती है । शृङ्गार से विमुखता का भान होता है । आरम्भ में महाकवि ने मंगलाचरण में भी 'स्वाभ्युदयाय' जयोदय का निर्माण करता हूँ, ऐसा लिखा है तथा 'स्वाभ्युदयाय' शब्दश्लेष के द्वारा 'स्वरूप आत्मनः अभ्युदयः यस्य सः ' इस प्रकार स्वाभ्युदय सम्बोधनान्त बनकर और 'अय' प्रशस्त विधिअर्थ को देने के लिये प्रयुक्त है। तथा 'भुक्त्या', 'ईशानं' पद के द्वारा मुक्ति के स्वामी जिन को श्रद्धापूर्वक अपने कल्याण हेतु नमस्कार दिखाया गया है । मुक्ति के स्वामी को नमस्कार करने का अभिप्राय व्यक्त करता है कि चारों पुरुषाथों में मुक्ति को परम निःश्रेयस समझ कर उस ओर प्रवृत्त कराने की इच्छा प्रतीत होती है ।
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प्रथम सर्ग के तृतीय श्लोक से यह भी व्यक्त है कि अमृत प्राप्ति कामरूप मात्र एक पुरुषार्थ को प्रदान करता है तथा जयोदय की कथा चारों पुरुषार्थों को प्रदान करती है । यथा'कथाप्यथामुष्य यदि श्रुतारात्तथा वृथा साऽऽर्य सुधासुधारा । कामैकदेशक्षरिणी सुधा सा कथा चतुर्वर्गनिसर्गवासा || ''5
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उसी सर्ग के पंचम श्लोक में भगवान् के चरण कमल द्वय को 'शिवैकसद्द्मं' कहा गया है जो अनन्य कल्याण का अनन्य स्थान बताया गया है । 'शिवं कल्याणं तदेव एकमात्रम् अनन्यं सद्म स्थानं यस्य तत् शिवैक सद्द्म' यह चरण कमल द्वय का विशेषण शान्त रस को पुष्ट करने के लिये ही प्रयुक्त प्रतीत होता है। जयकुमार के चरणों के शरण में पहुँचने वाले व्यक्ति के लिये दिगम्बरत्व तथा उपवास की आवश्यकता नहीं पड़ती है। बिना भोगों के त्याग के ही व्यक्ति का दुःख विमुक्त हो जाता है। यह वर्णन जयकुमार के महत्व प्रदर्शन
है ।