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चतुर्थ अध्याय / 71 करुण विप्रलम्भ से इस करुण का भेद यह है कि करुण में स्थायीभाव शोक होता है जबकि करुण विप्रलम्भ में पुनः संयोग हेतुक रतिभाव ही स्थायी बनता है । 4. रौद्र रस - रौद्र रस का रक्त वर्ण, रुद्र देवता कहा है । क्रोध इसका स्थायी भाव है।
शत्रु आदि आलम्बन विभाव, शत्रु आदि की चेष्टाएँ मुष्टिक प्रहार, गिरना, अङ्ग छेदन, विदारण आदि उद्दीपन विभाव हैं । भौहों का चढ़ना, ओष्ठ फड़फड़ाना, ताढ़ी ठोकना इसके अनुभाव हैं । उग्रता, रोमांच, कम्पन, मोह, उनमर्ष आदि इसके व्यभिचारी भाव हैं । यद्यपि रौद्र और युद्धवीर में शत्रु ही आलम्बन विभाव होता है इसीलिये एकता की प्रतीति होती है । परन्तु फिर भी इन दोनों में भेद है । क्योंकि रौद्र रस में आँख, मुख रक्त होते हैं तथा क्रोध स्थायी भाव है । जबकि वीर का स्थायी भाव उत्साह है। 5. वीर रस - वीर रस के महेन्द्र देवता हैं, वर्ण सुवर्ण माना गया है । विजेतव्य पदार्थ
आलम्बन विभाव है तथा विजेतव्यादि की चेष्टा उद्दीपन है। सहायकों का खोजना अनुभाव है। धृति, मति, गर्व, स्मृति, तर्क, रोमांच आदि व्यभिचारी भाव हैं । यह दानवीर, धर्मवीर,
युद्धवीर, दयावीर के भेद से चार प्रकार का माना गया है। 6. भयानक रस - इस रस का देवता भूत है परन्तु कालाधिदेवतः यह पाठान्तर भी मिलता
है । इसलिये काल यम भी इसके देवता कहे जाते हैं । वह प्राणिमात्र के मृत्युजनक हैं । उन्हीं के द्वारा भय उत्पन्न होने से ऐसा माना गया है । इसका वर्ण श्याम है । भय स्थायी भाव है । नीच जन अधम प्रकृति स्त्री आदि इसमें नायक होते हैं। जिससे भय उत्पन्न होता हो ऐसे इसमें आलम्बन विभाव बनते हैं । इनकी. भयंकर चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव बन जाते हैं । मालिन्य, लड़खड़ाते हुए शब्द से बोलना, चेष्टाओं का लुप्त होना. पसीना आ जाना, रोमांच उठना, कम्पन, दिशाओं की ओर देखना आदि अनुभाव हैं ।
जुगुप्सा, आवेग, भ्रान्ति, मृत्यु आदि व्यभिचारी भाव बनते हैं । 1. बीभत्स रस - बीभत्स रस के महाकाल देवता हैं । इसका नील वर्ण अर्थात् ध्रुम वर्ष
स्वीकार किया गया है । नीलवर्ण का अर्थ ध्रुम वर्ण होता है - 'महाकालं यजेद्देव्या दक्षिणे धुम्रवर्णकम्' इस स्मृति वचन से परिपुष्ट है । जुगुप्सा स्थायी भाव है । दुर्गन्ध, मांस, रुधिर, मेदा आलम्बन विभाव होते हैं; उन्हीं वस्तुओं में कृमि पड़ जाना आदि उद्दीपन विभाव कहा गया है । थूकना, मुख का ढकना, नेत्र संकोच वमन आदि इसमें अनुभाव होते हैं । मोह, अपगत स्मृति, आवेग, व्याधि मरण, ग्लानि आदि व्यभिचारी
भाव कहे गये हैं। 2. अदभुत रस - इस रस के गन्धर्व देवता है । भरत मुनि ने अद्भुत रस को ब्रह्मदैवत
एवं पीतवर्ण बताया है । गन्धर्वो के पीत वर्ण होने से पीत स्वरूप कहा गया । अलौकिक का इन्द्रजालादि आलम्बन विभाव एवं गुणों का महत्व वर्णन उद्दीपन विभाव होता है।