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72 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन . जड़ता, पसीना आना, रोमांच, गद्गद् वाणी, वेग, नेत्र आदि का फैलना, निर्निमेष देखना
ये सब अनुभाव माने गये हैं । वितर्क, आवेग, सम्भ्रान्ति, हर्ष, उत्सुकता आदि व्यभिचारी
भाव हैं। 9. शान्त रस - शान्त रस के देवता लक्ष्मी नारायण हैं । माघीपुष्प, चन्द्रमा आदि के समान
इसका शक्ल निर्मल वर्ण कहा गया है । भागवत में भी भगवान् के सम्बन्ध में ऐसा कहा गया है - "शुक्लोरक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ।" इस कथन से सत्ययुग में महाविष्णु का शुद्ध रूप व्यक्त होता है । "तत्र सत्वंनिर्मलत्वात्प्रकाशकमिति ।" इस गीता के कथन से भी शम का जनक सत्त्वगुण, शुद्ध वर्ण स्फटिक के सदृश प्रकाशक होने से शान्त का भी शुभ्र वर्ण होना उचित ही है । यह सारा संसार अनित्य अर्थात् अवश्य विनाशी है । आत्मज्ञान का बाधक है । समग्र वित्त, पुत्र, मित्र, कलत्र आदि पदार्थ नि:सार हैं इत्यादि, तथा परमात्मस्वरूप इसके आलम्बन विभाव रूप में कहे गये हैं। पवित्र आश्रम चित्रकूट आदि, श्री क्षेत्र आदि तीर्थ, रम्य वन नैमिषाख्य आदि एवं वैद्यनाथ आदि धाम तथा महापुरुषों की संगति इसके उद्दीपन विभाव हैं । मोक्षोत्पादक रोमांच दया सन्यास आदि इसके अनुभाव हैं एवं निर्वेद, हर्ष, स्मरण, मति सम्पूर्ण जन्तुओं के
प्रति दया, धृति आदि व्यभिचारी भाव हैं शम इस रस का स्थायी भाव है । 10. वात्सल्य रस - इन सबों के अतिरिक्त भरत मुनि ने वात्सल्य रस का प्रतिपादन किया ___ है । इसी अनुरोध से साहित्यदर्पणकार ने भी वात्सल्य रस को व्यक्त किया है।
वात्सल्य रस की देवता लोक माताएँ मानी गयी हैं जो गौर्यादि षोडश मात्रिका रूप में प्रसिद्ध हैं । वर्ण, कमल कोश के समान कान्त अर्थात् शुभ्रपीत के सदृश है, क्योंकि लोक माताएँ इसी रूप की है । पुत्र, अनुज एवं अनुज-पुत्र आदि इसके आलम्बन विभाव हैं । उनकी चेष्टाएँ क्रीडा, कूदना, हास्य, विद्या, शास्त्रादिक ज्ञान, शूरता, अभ्युदय, धनोपार्जनादि एवं सेवादि उद्दीपन विभाव हैं । आलिङ्गन, अङ्ग स्पर्श, सिर चुम्बन, देखना, रोमांच आनन्दाश्रु, हर्षाशु वस्त्र-भुषण, दानादि अनुभाव कहे गये हैं । अनिष्ट की शंका, हर्ष, गर्व, धैर्यादि इसके व्यभिचारी भाव हैं । वत्सलता स्नेह इसका स्थायीभाव है । .. रसाभास एवं भावाभासः .. रस एवं भाव के अनुचित प्रवृत्ति को रसाभास एवं भावाभास कहते हैं । यह अनौचित्य
लोक विरुद्ध एवं शास्त्रादि विरुद्ध होने में माना गया है । तात्पर्य यह है कि अनुचित विभाव के आलम्बन होने से रसाभास एवं अनुचित विषय के होने से भावाभास होता है । अनौचित्य का निरूपण भरत आदि मुनि प्रणीत रस एवं भाव की सामग्री से रहित होना ही मान्य किया
- साहित्यदर्पणकार ने भी इसे स्पष्ट किया है" । यदि रति उपनायक में स्थित हो या