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70 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
का भेद' शृङ्गमऋच्छति प्राप्नोति इति शृङ्गार' शृङ्ग उपपद रहते हुए ऋधातु से 'कर्मण्यण्' सूत्र से अण् प्रत्यय करके शृङ्गार शब्द निष्पन्न होता है । इसके विष्णु देवता हैं । वर्ण इसका श्याम है 24 ।
आचार्य विश्वनाथ ने एक विलक्षण बात कही कि करुण विप्रलम्भ भी एक रस है । नायक और नायिका में एक का लोकानन्तर अर्थात् देहावसान हो जाय पुनः प्राप्त न होने के कारण आकुलता उत्पन्न होती हो प्राण वियोग हो जाने पर शोक मिश्रित जहाँ रति पुष्ट हो वहाँ करुण विप्रलम्भ रस होता है । मिलने की आशा का अभाव होने से केवल शोक जहाँ स्थायी भाव हो वहाँ रति के नष्ट होने से उत्कट शोक सम्भावित होने से करुण होता है ।
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वाणभट्ट प्रणीत कादम्बरी में पुण्डरीक महाश्वेता का वृत्तान्त करुण विप्रलम्भ है । 2. हास्य रस हास्य रस का वर्ण श्वेत तथा देवता शिव हैं। स्वाभाविक से विपरीत आकार चेष्टा हाथ चरण आदि का होना आलम्बन विभाव है । नेत्र का संकुचित होना, विशेष पुरुष चेष्टादि जिससे जन वर्ग अधिक हँसने में प्रवृत्त हो वह उद्दीपन विभाव बनता है। नेत्र मुद्रित करना, मुख को छिपाना, कपोल आदि का फुलाना अनुभाव है। निद्रा, आलस्य, मनोवृत्ति को छिपाना, श्रम आदि व्यभिचारी भाव है । हास इसका स्थायी भाव है । यह रस उत्तम-मध्यम-अधम प्रकृत भेद से छ: प्रकार का होता है । उत्तम व्यक्तियों में हसित जिसमें अधर में कुछ गति प्रतीत हो तथा थोड़े-थोड़े दाँत दीखते हों, जिसमें नेत्र कुछ विकसित हों उन्हें हसित कहते हैं। स्मित (मुस्कुराहट) जिसमें कपोल भाग आदि रोमांचित रहते हैं । इससे अधिक हास्य का स्वरूप उत्तम प्रकृति के विरुद्ध माना गया है ।
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मध्यम प्रकृति में विहसित-अवहसित ये दो भेद कहे गये हैं । जिसमें मधुर स्वर होते हों उसे विहसित, जिसमें कन्धा मस्तक भाग कम्पन युक्त हों उसे अवहसित कहते हैं । अधम प्रकृति में -अपहसित तथा अतिहसित हास्य के रूप होते हैं । अपहसित में ढढाकर हँसना और नेत्र का आँसुओं से भर जाना शरीर का हास्य वश इधर-उधर उत्थित होने की क्रिया है, तथा अङ्ग का इधर-उधर से संचालन आदि अतिहसित हैं " ।
3. करुण रस - जहाँ अभीष्ट वस्तु की अप्राप्ति और अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति को करुण रस में विभाव माना गया है । शोचनीय नष्ट पुत्र धनादि आलम्बन विभाव होते हैं । दाहादिक अवस्था उद्दीपन विभाव बनता है । शोक इस रस का स्थायी भाव है । यम इसके देवता हैं । कपोत वर्ण (मलिन-वर्ण) इसका रंग माना गया है क्योंकि शोक पाप से ही उत्पन्न होता है और पाप का स्वरूप कवि समय (ख्याति) के आधार पर 'मालिन्यं व्योम्नि पापे' (सा.द. सप्तम परिच्छेद) मलिन माना गया है । देवनिन्दा, भाग्यनिन्दा, पृथ्वी पर गिरना, चिल्लाना, व्यथा जनक शब्दोच्चारण आदि इसके अनुभाव हैं । निर्वेद, मोह आदि इसके व्याभिचारी भाव है 7 ।