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चतुर्थ अध्याय / 69 है । इसी प्रकार साहित्यदर्पणकार ने वात्सल्यरस भी माना है जो उनके अभीष्ट ग्रन्थ से स्पष्ट है । गोड़ी, वैष्णव आदि सम्प्रदायवादियों ने तो मधुररस को ही सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया है । माध्व सम्प्रदायवादियों ने भक्तिरस को प्रधानता दी है।
दशरूपककार धनिक ने भी आठ रसों के अतिरिक्त शमप्रधान नवें रस शान्त की सत्ता स्वीकार करने पर भी अनभिनेय होने के कारण नाट्य में अनभीष्ट माना है। रसों का पारस्परिक शत्रु-मित्र भाव :
किसी भी काव्य या महाकाव्य में प्रधानता किसी एक ही रस की होती है । अन्य रस गौण होकर ही स्थित होते हैं । यदि विरोधी रस की प्रबलता हो जाय तो रस दोष हो जाता है । इसी प्रकार काव्य में प्रायः विरोधी भाव नहीं ठहरते हैं । यदि विरोधी भाव आते भी हैं तो बाह्य रूप में ही आते हैं अर्थात् अङ्ग होकर के ही स्थित होते हैं अङ्गी की स्थिति में उनका विस्तार नहीं होता है ।
किन रसों का किन से विरोध है इनके विषय में भी आचार्यों ने अपना मत व्यक्त किया है । शृङ्गार का करुण, बीभत्स, रौद्र तथा भयानक के साथ विरोध है । इसी प्रकार हास्य का करुण और भयानक से, करुण का हास्य और शृंङ्गार से, रौद्र का हास्य शृङ्गार तथा भयानक से विरोध है । शांत रस के शत्रुरसों में वीर, रौद्र, भयानक, शृङ्गार तथा हास्य रसों के नाम आते हैं और बीभत्स रस की शत्रुता केवल शृङ्गार के साथ है तथा अद्भुत का विरोध किसी के साथ नहीं है । इसी प्रकार वीर, शृङ्गार, रौद्र, हास्य का भयानक रस से विरोध है । काव्याचार्यों ने रसों के परस्पर विरोध परिहार का भी निरूपण किया है। आचार्यों ने वीर रस, अद्भुत रस एवं रौद्र रस को परस्पर भिन्न माना है । उसी प्रकार शृङ्गार, अद्भुत और हास्य रसों की परस्पर मैत्री है तथा भयानक और बीभत्स भी अपास में भिन्न हैं । रस सम्बन्धी शास्त्रीय चर्चा अन्यत्र व्यापक है । मैंने यहाँ संक्षेप में उसका दिग्दर्शन मात्र करने का प्रयास किया है। रसों के भेद
1. शृङ्गार रस आचार्यों ने शृङ्गार के दो भेद स्वीकार किये हैं ।
1. संयोग 2. विप्रलम्भ 1. आलिङ्गन - चुम्बन आदि भेद से संयोग शृङ्गार के अनन्त भेद संभव हैं । जिनका परिगणन
संभव नहीं । अतः प्राधान्येन उसका एक भेद माना गया है । मम्मट आदि आचार्यों ने विप्रलम्भ के 5 भेद स्वीकार किये हैं, वे हैं, अभिलाष, विरह, ईर्ष्या, प्रवास और शाप हेतुक । साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने लिखा है कि बिना विप्रलम्भ के सम्भोग शृङ्गार पुष्ट नहीं होता । शृङ्गार शब्द का अर्थ करते हुए उन्होंने कहा है कि शृङ्ग अर्थात् काम